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अ०५. लोकसार, उ० २. सूत्र ३४-३८
२५५ भाष्यम् ३६-सूत्रकारो वक्ति-बंधः तव अन्तरा- सूत्रकार कहते हैं-बंध तुम्हारी अन्तर् आत्मा में ही है और त्मन्येव वर्तते । प्रमोक्षोऽपि तव अन्तरात्मन्येव ।' मोक्ष भी तुम्हारी अन्तर् आत्मा में ही है। बंध का हेतु है-पदार्थों बंधस्य हेतुरस्ति पदार्थ प्रति रागः। प्रमोक्षस्य हेतुरस्ति के प्रति राग और प्रमोक्ष का हेतु है--पदार्थों के प्रति विराग। यह पदार्थं प्रति विरागः । एतद् मया भगवतः सकाशात् मैंने भगवान् के पास सुना है, ऐसा ही मैंने चिंतन किया है और ऐसा श्रुतं तथा एतन्मया चिन्तितं अनुभूतमपि च ।'
ही मैंने अनुभव भी किया है। आत्मा एव कर्मणः कर्ता, तेन आत्मकृतो बन्धः। आत्मा ही कर्मों की कर्ता है, इसलिए बंध आत्मकृत है । स एव कर्मणो विकर्ता, तेन आत्मकृत एव प्रमोक्षः। आत्मा ही कर्मों की विकर्ता है, इसलिए प्रमोक्ष भी आत्मकृत है। तात्पर्यार्थे सम्मतं आत्मकर्तृत्वम् । यदि ईश्वरकर्तृत्वं तात्पर्य में आत्मकर्तृत्व सम्मत है। यदि ईश्वरकर्तृत्व को स्वीकार स्यात् तत् किं प्रयोजनं कर्मणः बन्धप्रमोक्षयोर्वा ? पूर्व किया जाए तो कर्मों के बंध और प्रमोक्ष का प्रयोजन ही क्या हो बन्धकरणं पश्चात् तत्प्रमोक्षकरणं इति नास्ति सकता है ? पहले तो बंध करना फिर उसका प्रमोक्ष करना-इसे प्रेक्षापूर्विका प्रवृत्तिः ।
बुद्धिमत्तापूर्वक प्रवृत्ति नहीं कहा जा सकता। ___ आत्मा प्रमत्तः सन् स्वकीयाऽशुभेन उत्थान-कर्म- आत्मा प्रमत्तदशा में अपने अशुभ उत्थान-कर्म-बल-वीर्यबल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमेण कर्मप्रायोग्यपुद्गलान् पुरुषकार तथा पराक्रम से कर्मप्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर कर्मों से गहीत्वा बद्धो भवति । अप्रमत्तः सन् शुभेन उत्थान-कर्म- बद्ध हो जाती है । वह अप्रमत्त अवस्था में शुभ उत्थान-कर्म-बल-वीर्यबल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमेण कर्मपुद्गलानां निर्जरणं पुरुषकार तथा पराक्रम से कर्म पुद्गलों का निर्जरण कर मुक्त हो कृत्वा प्रमुक्तो भवति। उदीरणासंक्रमणादिप्रयोगेण जाती है । आत्मा उदीरणा और संक्रमण आदि प्रयोगों के द्वारा कर्मों कर्मणः परिवर्तनमपि कर्त शक्नोति । तेन सिद्धमिदं, का परिवर्तन भी कर सकती है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि बंध बन्धः प्रमोक्षश्च आत्मन्येव ।
और प्रमोक्ष आत्मा में ही है। ३७. एत्थ विरते अणगारे, दोहरायं तितिक्खए। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए। सं०-अत्र विरतः अनगारः दीर्घरात्रं तितिक्षेत । प्रमत्तान् बहिः पश्य अप्रमत्तः परिव्रजेः। परिग्रह से विरत अनगार परीषहों को जीवन-पर्यन्त सहन करे । तू देख ! जो प्रमत्त हैं, वे साधुत्व से परे हैं। इसलिए तू अप्रमत्त होकर परिव्रजन कर।
भाष्यम् ३७-अत्र परिग्रहाद् विरत: अनगारः परिग्रह से विरत अनगार अपरिग्रह के कारण उत्पन्न होने अपरिग्रहजनितान् परीषहान् दीर्घरात्रं-आजीवनं वाले परीषहों को जीवन-पर्यन्त सहन करे। जो परिग्रह में प्रमत्त हैं, सहेत । ये परिग्रहे प्रमत्ताः पदार्थान् प्राप्य हृष्यन्ति ते वे पदार्थों को पाकर प्रसन्न होते हैं, वे आत्मानुभूति से बाहर हैं, आत्मानुभूतेः बहिःस्थिता वर्तन्ते इति त्वं पश्य । प्रमत्तो ऐसा तू देख । प्रमत्त मुक्त नहीं होता, अप्रमत्त मुक्त हो जाता हैन सिद्धयति अप्रमत्तश्च सिद्धयति इति बुद्ध्वा यह जानकर तू अप्रमत्तावस्था में परिव्रजन कर । अप्रमत्तावस्थायां परिव्रजनं कुरु ।। अप्रमत्तः'- संयमसाधनायां प्रवृत्तः ।
अप्रमत्त का अर्थ है-संयम की साधना में प्रवृत्त । ३८. एयं मोणं सम्म अगुवासिज्जासि ।-त्ति बेमि । सं०-एतद् मौन सम्यग् अनुवासयेः । इति ब्रवीमि । इस मौन का तू सम्यक् पालन कर। ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् ३८-परिग्रही आत्मानुभूतेः बहि:स्थितः । परिग्रही व्यक्ति को आत्मानुभूति नहीं होती । इस सूत्र के रहस्य १-२. 'अज्झत्थियं' तथा 'अज्मत्थ' एते द्वे अपि पदे विशिष्टं ३. आचारांग चणि, पृष्ठ १७१ : अप्पमाओ संजमअणुपाल
प्रयुक्त स्तः । संस्कृतसमत्वेन 'अज्झत्तिय' तथा 'अज्मत्तं' णत्यं पयत्तो, अहवा पंचविहपमायवइरित्तो अप्पमत्तो, इति प्रयोगः संगतः स्यात् । प्राचीनप्राकृते स्थकारस्य
अहवा जतणअप्पमत्तो य कसायअप्पमत्तो य, जयणप्रयोगः स्यादनुमतः । “अज्मत्थितं ऊहितं गुणितं चितितंति अप्पमत्तो संजमअणुपालणट्ठाए ईरियातिउवउत्तो, कसायएगट्ठा। (आचारांग चूणि, पृष्ठ १७१)
अप्पमत्तो जस्स कसाया खीणा उवसंता वा ।
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