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अ०५. लोकसार, उ०५. सूत्र ६९-१०४
२८३ भाष्यम् १०१-यं त्वं हन्तव्य इति मन्यसे स नाम जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है।' इस वाक्य में त्वमेव । अस्मिन् आत्मनः अद्वैतं प्रदर्शितम् । यं त्वं आत्मा का अद्वैत प्रतिपादित है। जिसको तू मारना चाहता है, वह जिघांससि स नास्ति त्वत्तोऽन्यः, तेन तं घातयन् किं तेरे से भिन्न नहीं है। क्या तू उसकी घात करता हुआ स्वयं की घात नात्मानमेव हन्सि ? अनया अद्वैतानुभूत्या हिंसातः नहीं कर रहा है ? इस अद्वैत की अनुभूति से हिंसा से सहज विरति सहजा विरतिर्जायते । यत्र द्वैतानुभूतिः परानुभूतिर्वा तत्र हो जाती है। जहां द्वैत की या पर की अनुभूति होती है, वहां हनन हननादीनां प्रसङ्गः, तेन स्वरूपगतस्य अद्वैतस्य उपदेशः। आदि का प्रसंग आता है, इसलिए यहां आत्मा के स्वरूपगत एवमन्यत्रापि।
अद्वैत का उपदेश दिया गया है। इसी प्रकार अन्य आलापकों के विषय
में समझ लेना चाहिए। १०२. अंजू चेय पडिबुद्ध-जीवी, तम्हा ण हंता ण विघायए ।
सं. ऋजुः चैतत् प्रतिबुद्धजीवी, तस्मात् न हंता न विघातयेत् । ज्ञानी पुरुष ऋजु तथा समझ कर जीने वाला होता है । इसलिए वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से करवाता है।
भाष्यम् १०२-अहिंसकः ऋजुर्भवति । स च हन्तव्य- अहिंसक व्यक्ति ऋजु होता है। वह हन्तव्य और घातकघातकयोरेकतां प्रतिपद्य जीवति, न तु भयेन शठतया दोनों की एकता को स्वीकार कर जीता है। वह भय या शठता से वा एतं सिद्धान्तं स्वीकरोति, तस्मात् स न स्वयं इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता, इसलिए वह न स्वयं प्राणियों प्राणिनो हिनस्ति न चान्येन घातयति ।
की हिंसा करता है और न दूसरों से करवाता है। १.३. अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं 'हंतव्वं' ति णाभिपत्थए ।
सं०-अनुसंवेदनं आत्मना, यत् हन्तव्य इति नाभिप्रार्थयेत् । अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भुगतना होता है, इसलिए किसी के हनन की इच्छा मत करो।
भाष्यम १०३-त्वया यत् कर्म कृतं तस्य फलं त्वया जो कर्म तुमने किया है, उसका फल तुमको ही भुगतना भोक्तव्यमिति 'आत्मना अनुसंवेदनम्' उच्यते । उक्तञ्च होगा । यह 'स्वयं का अनुसंवेदन' कहलाता है। चूणि में कहा हैच -'जहा तूमो वेदावितो तहेव वेतितव्वं ।' यस्मात् 'जैसे तुमने दूसरों को संवेदित कराया है, वैसा ही तुम्हें संवेदन कश्चिदपि प्राणी हन्तव्य इति नाभिलषेत् ।
करना होगा।' इसलिए किसी भी प्राणी के हनन की इच्छा न करे । १०४. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया।
सं०-यः आत्मा स विज्ञाता, यो विज्ञाता स आत्मा । येन विजानाति तद् आत्मा । जो आत्मा है, वह ज्ञाता है और जो ज्ञाता है, वह आत्मा है । जिस साधन से आत्मा जानती है, वह जान आत्मा है ।
भाष्यम् १०४-आत्मा द्रव्यम् । ज्ञानं तस्य गुणः । आत्मा द्रव्य है। ज्ञान है उसका गुण । द्रव्य से गुण भिन्न है द्रव्याद गुण: भिन्न: अभिन्नो वा इति जिज्ञासायां अथवा अभिन्न, इस जिज्ञासा के प्रसंग में सूत्रकार कहते हैं जो निर्दिशति सूत्रकार:–य आत्मा स विज्ञाता। तात्पर्य- आत्मा है, वह विज्ञाता है। इसका तात्पर्य है कि आत्मा ज्ञान-शन्य मस्य-आत्मा नास्ति ज्ञानविरहितः। यः विज्ञाता स नहीं है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। इसका तात्पर्य है-ज्ञान आत्मा । अस्य तात्पर्यम् - ज्ञानं नास्ति आत्मविरहितम्। आत्माशून्य नहीं है। चूर्णिकार कहते हैं-'कोई भी आत्मा ज्ञानआह चणिकार:--'णवि अप्पा नाणविन्नाणविरहितो विज्ञान से रहित नहीं है । जैसे अग्नि अनुष्ण नहीं होती। उष्णता अग्नि कोइ, जहा अणुण्हो अग्गी णत्थि, ण य उण्हं अग्गीओ से भिन्न पदार्थ नहीं है, इसलिए अग्नि के कथन से उष्णता का कथन अत्यंतरं, तेण अग्गी वुत्ते उण्हं वुत्तमेव भवति, तहा स्वयं हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा के कथन से विज्ञान का कथन आता इति वत्ते विण्णाणं भणितमेव भवति, विण्णाणे स्वयं हो जाता है और विज्ञान के कथन से आत्मा का कथन स्वयं हो भणिते अप्पा भणितमेव भवति। एवं गतं गतिपच्चा- जाता है । इस प्रकार गत-प्रत्यागत लक्षण से इस आलापक का अर्थ गतिलक्खणेणं।
किया गया है।' १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १९४ ।
२. वही, पृष्ठ १९४, १९५।
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