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अ० ५. लोकसार, उ० ४-५. सूत्र ८८-६१
२७७ १. एकः परिगलस्रोताः नो पर्यागलस्रोताश्च ।
१. एक बह द्रह है जिससे स्रोत निकलता है मिलता नहीं। २. एकः पर्यागलस्रोताः नो परिगलत्स्रोताश्च ।
२. एक वह द्रह है जिससे स्रोत मिलता है, निकलता नहीं। ३. एकः परिगलस्रोता अपि पर्यागलस्रोता अपि । ३. एक वह द्रह है जिससे स्रोत निकलता भी है और मिलता
भी है। ४. एकः नो परिगलत्स्रोता: नो पर्यागलत्- ४. एक वह द्रह है जिससे न स्रोत निकलता है और न मिलता
. स्रोताश्च । स कमलैः प्रतिपूर्णः समभूभागे तिष्ठति-सुखावतार: वह दह कमलों से परिपूर्ण है। वह समतलभूमी पर स्थित है। सुखोत्तारश्च । उपशांतरजाः निष्पंक इति यावत्, उसके भीतर जाना और बाहर आना सहज-सुखकर है। वह पंकरहित । मत्स्यान कच्छपांश्च संरक्षति । स तिष्ठति श्रोतोमध्य- है। वह मत्स्यों और कच्छपों का संरक्षण करता है। वह स्रोत के मध्य गत:-यस्मिन् श्रोतांसि आगच्छन्ति यतश्च श्रोतांसि में है-जिसमें स्रोत मिलते भी हैं और निकलते भी हैं। यह एक निर्गच्छन्ति । एष दृष्टांतः ।
दृष्टान्त है। अत्रोपनयः-प्रथमे भने तीर्थंकरः, द्वितीये जिन- इसका उपनय इस प्रकार है- पहले द्रह के समान होते हैं कल्पिकः, तृतोये आचार्यः, चतुर्थे प्रत्येकबुद्धश्च । अत्र तीर्थकर, दूसरे द्रह के समान होते हैं जिनकल्पिक अनगार, तीसरे द्रह तृतीयः आचार्यगुणैः निर्मलज्ञानेन वा प्रतिपूर्णः, के समान होते हैं आचार्य और चौथे द्रह के समान होते हैं प्रत्येकसमभूभ्यां समत्वपरिणामधारायां स्थितः, रजसः- बुद्ध । यहां तीसरे प्रकार के द्रह द्वारा आचार्य का निरूपण किया गया मोहनीयस्य उपशमनं करोति, जीवनिकायान् संरक्षन् स है। आचार्य आचार्योचित गुणों से अथवा निर्मलज्ञान से प्रतिपूर्ण, और श्रुतार्थदानग्रहणसद्भावात् श्रोतोमध्यगतस्तिष्ठति । समभाव की भूमिका में स्थित होकर मोहनीय को उपशांत करता है।
वह जीवनिकायों का संरक्षण करता हुआ श्रुत और अर्थ को लेता भी
है और देता भी है, इस प्रकार वह स्रोत के मध्य में स्थित है। १०. से पास सव्वतो गुत्ते, पास लोए महेसिणो, जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया।
सं०-अथ पश्य सर्वतो गुप्तान् पश्य लोके महर्षीन् । ये च प्रज्ञानवन्तः प्रबुद्धाः आरम्भोपरताः । लोक में विद्यमान सर्वतः गुप्त महर्षियों को तू देख, जो प्रज्ञानवान्, प्रबुद्ध और आरम्भ से उपरत हैं।
माष्यम् ९०-अथ त्वं लोके सर्वेरिन्द्रियैः गुप्तान् तू लोक में विद्यमान समस्त इन्द्रियों से गुप्त महर्षियों को महर्षीन् पश्य, ये प्रज्ञानवन्त:'-चतुर्दशपूर्वधराः अथवा देख, जो प्रज्ञानवान हैं...-चौदहपूर्वी हैं अथवा आचारांग आदि के आचारांगादिधग वर्तन्ते, ये प्रबुद्धाः–अवधि- धारक हैं, जो प्रबुद्ध हैं-अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी अथवा श्रुतधर्ममनःपर्यवज्ञानिनः श्रुतधर्मविशारदा वा वर्तन्ते, ये च आगम-विशारद हैं, जो आरम्भ से उपरत हैं। आरम्भ का अर्थ हैआरम्भोपरता' वर्तन्ते। आरम्भः-अज्ञानं, कषायः, अज्ञान, कषाय, नो-कषाय अथवा असंयम । जो उससे उपरत अर्थात् नोकषायः, असंयमो वा । तस्मादुपरता विरता इति यावत्। विरत होते हैं वे आरम्भोपरत हैं। ११. सम्ममेयंति पासह ।
सं०- सम्यगेतदिति पश्यत ।
यह सम्यग् है । इसे तुम देखो। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९० : भिसं नाणमंता चोद्दस
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २००: प्रबुद्धा:-प्रकर्षण पुग्वधरा जे अण्णे गणहरवज्जा परंपरएण आगया
यथैव तीर्थकृदाह तथैवावगततत्त्वाः प्रबुद्धाः। आयरिया जाव अज्जकालं ।
३. (क) आचारांग चणि, पृष्ठ १९०: आरंभोवरय त्ति (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २०० : प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति
अण्णाणकसायणोकसाय असंजमो वा आरंभो, उवरया प्रज्ञानं-स्वपरावभासकत्वावागमस्तद्वन्तः प्रज्ञानवन्तः
णाम विरता। आगमस्य वेत्तार इत्यर्थः ।
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र २००: आरम्भः-सावयो २. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १९० : बुद्धा ओहिमणपज्जव
योगस्तस्मादुपरता आरम्भापरताः। नाणिणो सुयधम्मे वा बुद्धा जे जहि काले ।
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