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अ० ५. लोकसार, उ० ४. सूत्र ८४
२७३ एषां चिकित्सार्थं एते उपायाः सन्ति ।
इन सभी प्रकार की कामासक्तियों की चिकित्सा के लिए ये
उपाय हैं। स्थानांगे कामसंज्ञाया उदयस्य चत्वारि कारणानि स्थानांग में कामसंज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण निर्दिष्ट हैं। सन्ति निर्दिष्टानि । तत्रैकं कारणमस्ति-मांसशोणितस्य उनमें से एक कारण है - 'मांस और रक्त का उपचय। इसीलिए प्रस्तुत चयः । अत एव प्रस्तुतागमे 'विगिच मंससोणियं" इति आगम में 'मांस और रक्त का अपचय करो'-यह निर्देश है। कामनिर्देशोऽस्ति । कामोदयस्य सम्बन्धः शुक्रोपचयेन, शुक्रो- वासना के उदय का संबंध वीर्य के उपचय से और बीर्य के उपचय पचयस्य सम्बन्ध आहारेण । तेन कामचिकित्साया का संबंध आहार से है। इसलिए काम-संज्ञा की चिकित्सा के उपायों उपायानां संज्ञाने आहारविषयका निर्देशा लभ्यन्ते। की जानकारी में आहार से संबंधित निर्देश मिलते हैं । निशीथ भाष्य निशीथस्य भाष्ये चूर्णी च एष विषयः सुस्पष्टं प्रति- और चूणि में यह विषय बहुत स्पष्टता से प्रतिपादित हुआ है। पादितोऽस्ति। ते उपायाः चामी
काम-चिकित्सा के वे उपाय ये हैं - १. निर्बलाहारकरणम् (सू० ७९)
१. मुनि निर्बल भोजन करे। २. अवमौदर्यकरणम् (सू०८०)
२. ऊनोदरिका करे-कम खाए। ३. ऊर्ध्वस्थानम् (सू०८१)
३. ऊर्ध्वस्थान (घटनों को ऊंचा और सिर को नीचा) कर
कायोत्सर्ग करे। ऊर्ध्वस्थानावस्थायां नासाग्रे भृकुट्यां वा नेत्रे ऊर्ध्वस्थान की अवस्था में दोनों नेत्रों को नासाग्र या भकुटी पर सुस्थिरे कार्ये । अथवा वारं वारं सुस्थिरे कार्ये । एतेन स्थिर करे अथवा बार-बार उन पर स्थिर करे । इस क्रिया से अपानवायोः दुर्बलता प्राणवायोश्च प्रबलता जायते। अपानवायु दुर्बल होती है और प्राणवायु प्रबल । अपानवायु की अपानवायोः प्रबलतया कामांगं सक्रियं भवति । प्राण- प्रबलता से कामांग सक्रिय होता है और प्राणवायु की प्रबलता से वह वायोः प्राबल्येन तस्य निष्क्रियता संपद्यते।'
निष्क्रिय हो जाता है। ___ इष्टमन्त्रपूर्वक समवत्तिश्वासप्रेक्षायाः पञ्चविंशत्या- अपने इष्टमंत्रपूर्वक समवृत्तिश्वासप्रेक्षा की पचीस आवृत्तियां करने वृत्तिकरणेनापि कामः शाम्यति ।
से भी कामवासना उपशांत होती है। ४. ग्रामानुग्रामविहारः (सू०८२)
४. ग्रामानुग्राम विहरण करे । यथा द्वेषात्मकप्रकृतेः पुरुषस्य निषीदनं हितावहं तथा जैसे द्वेषात्मक प्रकृति वाले मनुष्य का बैठे रहना हितकारी होता रागात्मकप्रकृतेः पुरुषस्य स्थानं गमनं च हितावहम् । अत है, वैसे ही रागात्मक प्रकृति वाले मनुष्य का खड़े रहना या गमन एव ग्रामानुग्रामविहारः अस्ति ब्रह्मचर्यस्य उपायः । करना हितावह होता है । इस लिए ग्रामानुग्राम विहरण करना ब्रह्मचर्य
का उपाय है। ५. आहारविच्छेदः (सू० ८३)
५. आहार का विच्छेद (अनशन) करे। 'निग्गंथो धिइमंतो, निग्गयी वि न करेज्ज छहिं चेव । 'धृतिमान् साधु और साध्वी इन छह कारणों से भक्त-पान की ठाणेहिं उ इमेहि, अणइक्कमणा य से होइ।।' गवेषणा न करे, जिससे उनके संयम का अतिक्रमण न हो।' 'आयके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु ।
'ये छह कारण हैं (१) रोग होने पर, (२) उपसर्ग आने पर, पाणिदया तवहेलं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए ॥"
(३) ब्रह्मचर्य गुप्ति की तितिक्षा (सुरक्षा) के लिए (४) प्राणियों की
दया के लिए, (५) तप के लिए और (६) शरीर-विच्छेद के लिए।' १. अंगसुत्ताणि १, ठाणं, ४।५८१ : 'चहि ठाणेहि मेहुणसण्णा (१९) में आई हुई उड़ढंजाणू, अहोसिरे- इस मुद्रा का समुप्पज्जति, तं जहा- चित्तमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स सूचक है। हठयोगप्रदीपिका में भी 'ऊवनाभिरधस्तालः कम्मस्स उदएणं, मतीए, तबट्ठीवओगेणं ।
(३७९) और 'अधःशिराश्चोरीपादः (३।८१)-ऐसे २. आयारो, ४१४३ ।
प्रयोग मिलते हैं । ऊध्वंस्थान मुख्यतः सर्वांगासन और गौण ३. ऊवस्थान रात को अवश्य करना चाहिए । आवश्यकता के
रूप में शीर्षासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। इन अनुसार दिन में भी किया जा सकता है। एक, दो, तीन
आसनों से वासना-केन्द्र शांत होते हैं। उनके शांत होने से या चार प्रहर तक ऊर्ध्वस्थान करना वासना-शमन का
वासना भी शांत होती है। असाधारण उपाय है। 'ऊर्ध्वस्थान' शब्द भगवती सूत्र ४. उत्तरज्मयणाणि, २६६३३,३४ ।
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