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आचारांगभाज्यम् __ अस्मिन विषये सूत्रस्य अर्थपरम्परागतो विशेषनिर्देशो इस विषय में सूत्र ८३ का अर्थ-परंपरागत विशेष निर्देश प्राप्त वर्तते-'सम्वत्थ णिब्बलासगा ओमोवरियाओ करेति, सव्वहा है-'कामवासना के निवारण के लिए निर्बल भोजन करने वाले साधक अट्ठार्यते संलेहणं काउं भत्तं पच्चक्खाइ, एवं ता अबहुसुयस्स बार-बार ऊनोदरी करें। यदि काम शांत न हो तो वे संलेखना कर मोहतिगिच्छा, बहुसुत्तो पुण वायणं दवाविज्जइ।'
भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) करें। यह अबहुश्रुत साधक की कामचिकित्सा का उपाय है। बहुश्रुत मुनि स्वाध्याय आदि में अपने
आपको नियोजित करे। ६. संकल्पाकरणम् (सू० ८४)
६. काम का संकल्प न करे । 'समाए पेहाए परिश्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिखा। 'समदृष्टिपूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन संयम से न सा महं नोवि अहं पितीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ।' बाहर निकल जाए तो यह विचार कर कि 'वह मेरी नहीं है और न मैं
ही उसका हूं', मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषय-राग को दूर करे ।' 'आयावयाही चय सोउमल्लं, कामे कमाही कमियं ख दुक्खं । 'अपने को तपा । सुकुमारता का त्याग कर। काम --विषय-वासना छिवाहि बोस विणएज्ज राग, एवं सुही होहिसि संपराए ॥" का अतिक्रम कर। इससे दुःख अपने-आप अतिक्रान्त होगा । द्वेषभाव
को छिन्न कर । रागभाव को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार में
सुखी होगा।' निर्बलाहारः-निष्पावतक्रादीनामाहारः । अथवा येन निर्बल आहार का अर्थ है-उडद, छाछ आदि का भोजन । आहारेण शरीरं निर्बलं भवति तादृशः आहारः । अथवा वैसा भोजन जिससे शरीर निर्बल हो। अवमौदर्यम्--आचामाम्लकरणं अल्पभोजनं वा। अवमौदर्य का अर्थ है-आयंबिल करना अथवा अल्प भोजन
करना । स्थानकरणम-कायोत्सर्गः । स च दीर्घकालिकः। ऊर्ध्वस्थानकरण का अर्थ है-कायोत्सर्ग। वह दीर्घकालिक एकद्वित्रिचतुःप्रहरात्मकः ।
अर्थात् एक-दो-तीन या चार प्रहर का होता है । संसर्गाभावतः कामाभिलाषः शान्तो भवति । अस्ति संसर्ग के अभाव में काम की अभिलाषा शांत होती है। चैतन्यचैतन्यकेन्द्रविदां सम्मतमिदम् -कामसंज्ञा शक्तिकेन्द्र, केन्द्र के विशेषज्ञों द्वारा यह मान्य है कि कामसंज्ञा शक्तिकेन्द्र को, आहारसंज्ञा स्वास्थ्यकेन्द्रं यशोऽभिलाषा च तैजसकेन्द्रं आहारसंज्ञा स्वास्थ्यकेन्द्र को और यश की अभिलाषा तैजसकेन्द्र को सक्रियं करोति । अस्यामवस्थायां आनन्दकेन्द्रस्य निष्क्रि- सक्रिय करती है। इस स्थिति में आनन्द केन्द्र निष्क्रिय हो जाता है। यता जायते। तेन साधके नात्महितप्रज्ञा जागति न च इसीलिए साधक में आत्महित की प्रज्ञा नहीं जागती और न निर्जरार्थिता निर्जराथिताया भावो वर्द्धमानो भवति । अत एव का भाव ही वृद्धिंगत होता है। इसीलिए ब्रह्मचर्य, आहार-संयम और ब्रह्मचर्यस्य आहारसंयमस्य यशोऽभिलाषाविमुक्तस्य यशोभिलाषा से मुक्ति इन भावों की वृद्धि के लिए मार्ग बताया गया भावस्य अभिवृद्ध्यै मार्गः प्रदर्शितः । आनन्दकेन्द्रस्य है। आनन्दकेन्द्र की सक्रियता होने पर ये तीनों संज्ञाएं विनष्ट हो सक्रियतायां एताः तिस्रोऽपि संज्ञा विनष्टा भवन्ति । जाती हैं ।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ १८६ । २. (क) दसवेआलियं, २।४,५ । (ख) निशीथमाष्ये (गाथा ५६७,५७०) चूणा च सनिमित्त
कामोदयस्य शमनार्थ अमी उपायाः निर्दिष्टाः सन्ति'भारो विलिवियमेत्तं सम्वे कामा दुहावधा। तिविहम्मि वि सद्दम्मी, तिविह जतणा भवे कमसो॥५६७॥
वलयादिभूसणसद्दे भूसणसद्द वा आभरणभारो ति भण्णति। मितमधुरगीतादिभासासद्दे विलवियंति भणति। प्रवसितमृतभर्तरिगुणानुकीर्तनारोदिनीस्त्रीवत् । परियारसद्द 'सव्वे कामा वुहावह' ति दुक्खं आवहंतीति
दुक्खावहा दुक्खोपार्जका इत्यर्थः। तिविह भूसणादिसद्दे एस जयणा भणिता जहाकमस । 'विट्ठीपडिसंहारो, बिळे सरणे विरग्गमावणा भणिता। जतणा सणिमित्तम्मी होतऽणिमित्ते इमा जतणा ॥५७०॥
'आलिंगणावतासणादिसु विट्ठीपडिसंहारो कज्जति । बिठेसु हासवप्परइमाइसु पुठवभुत्तेसु सवणे बेरग्गमावियासु
भावणासु अप्पाणं भावे ति।' ३. द्रष्टव्यम्-आयारो, १५३ । ४. द्रष्टव्यम्-आचार्यमहाप्रज्ञप्रणीतं चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षापुस्तकम् ।
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