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आचारांगभाष्यम् भाष्यम् ४५ -शिष्याः प्रोचुः--भगवन् ! 'णो णिहेज्ज शिष्यों ने कहा---'भगवन् ! शक्ति का गोपन मत करो'- इस बोरिय' इति निर्देशमवलम्ब्य अनिगृहितबलवीर्याः निर्देश को मान कर हम अपने बल और शक्ति का गोपन नहीं करते हुए पराक्रममाणाः स्मः तथापि मोहं समूलमुन्मूलयितं संयम-साधना में पराक्रम कर रहे हैं, फिर भी हम मोह का सम्पूर्ण न शक्नुमः, तेन सारपदस्य प्राप्तये किञ्चिदन्यत् उन्मूलन नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए सारपद (ज्ञान, दर्शन आदि) की श्रोतुमिच्छामः । अस्माकं मनसि सारपदस्य प्राप्तेः प्राप्ति के लिए कुछ और सुनना चाहते हैं। हमारे मन में सारपद की प्रबला उत्कण्ठा विद्यते। तदर्थं वयं अशक्यमपि कर्तु- प्राप्ति की प्रबल उत्कंठा है। उसकी प्राप्ति के लिए हम अशक्य कार्य मूत्सहामहे । अपि वयं सिंहेनापि युध्यामहे, शरीरत्याग- करने के लिए भी उत्साहित हैं। और तो क्या, हम सिंह के साथ भी मपि कुर्महे ।' एतत् श्रुत्वा भगवता प्रोक्तं-"क्रियमाणं युद्ध करने और शरीर का त्याग भी करने के लिए तैयार हैं। यह सुन कृतम्' इति सिद्धान्तानुसारं युष्माभिः कथ्यते तत् कर भगवान् बोले-'क्रियमाणं कृतं'--इस सिद्धांत के अनुसार तुम जो कृतमेव, परन्तु सारपदस्य प्राप्तये न सिंहेन सह योद्धव्यं, कह रहे हो, वह तुमने कर डाला। किन्तु सारपद की प्राप्ति के लिए योद्धव्यमस्ति आत्मना। तदानीं भगवता आत्मयुद्धस्य सिंह के साथ युद्ध नहीं करना है । युद्ध करना है अपनी आत्मा के साथ । प्रवचनं कृतम्-अनेन इन्द्रियमानसात्मकेन औदारिक- तब भगवान् ने आत्म-युद्ध के विषय में प्रवचन किया कि तुम इस इन्द्रिय शरीरेण कर्मशरीरेण च युध्यस्व । बाह्ययुद्धेन-सिंहादिना और मानसात्मक औदारिक शरीर और कर्मशरीर के साथ युद्ध करो। युद्धकरणेन तव कि सेत्स्यति? यदि भणत 'निर्वाणार्थ सिंह आदि के साथ किए जाने वाले बाह्य युद्ध से तुम्हें क्या सिद्धि वयं प्राणानपि परित्यजामः' तद् एतद् बोद्धव्यम्- मिलेगी ? यदि तुम कहो कि निर्वाण के लिए हम प्राणों का बलिदान
भी कर सकते हैं, तो तुम्हें यह जानना चाहिए...
४६. जुद्धारिहं बलु दुल्लहं ।
सं० युद्धाहं खलु दुर्लभम् । युद्ध के योग्य सामग्री निश्चित ही दुर्लभ है।
भाष्यम् ४६ –युद्धाहं एतद् औदारिकं शरीरं निश्चितं युद्ध के लिए समर्थ इस औदारिक शरीर की प्राप्ति निश्चित दुर्लभं वर्तते । अत: यावज्जरा न बाधते, व्याधिर्न वर्धते, ही दुर्लभ है, इसलिए जब तक बुढ़ापा न सताए, व्याधि न बढ़े, इन्द्रियाणि न हीनानि भवन्ति तावद् युध्यस्व ।
इन्द्रियां कमजोर न हों, तब तक युद्ध करते रहो।
४७. जहेत्थ कुसलेहि परिणा-विवेगे भासिए।
सं०-यथात्र कुशलः परिज्ञाविवेकौ भाषितौ । भगवान् ने पुद्ध के प्रसंग में परिज्ञा और विवेक का प्रतिपादन किया।
भाष्यम् ४७–अस्मिन् प्रसङ्गे भगवता परिज्ञाविवेकौ इस प्रसंग में भगवान् ने परिज्ञा और विवेक का प्रतिपादन प्रतिपादितौ । आत्मयुद्धे परिज्ञाविवेकनाम्नी शस्त्रे किया है। आत्म-युद्ध में परिज्ञा और विवेक-इन दो शस्त्रों का प्रयोक्तव्ये ।' अनेन सारपदस्य विशिष्टा उपलब्धिः प्रयोग किया जाए। इससे सारपद की विशिष्ट उपलब्धि होगी। तुम भविष्यति। यूयं पूर्व आत्मशरीरयोः परिज्ञां कुरुत, सबसे पहले आत्मा और शरीर की परिज्ञा करो, उनके यथार्थ स्वरूप तयोर्यथार्थं स्वरूपं जानीत, ततो विवेकं कुरुत । विवेकः- को जानो और फिर दोनों का विवेक करो। विवेक का अर्थ हैनिर्ममत्वम् । इदं शरीरं मम नास्ति इति अनुप्रेक्षध्वम् । निर्ममत्व । 'यह शरीर मेरा नहीं है'- इस प्रकार अनुप्रेक्षा करो । इस अनेन विवेकेन-भेदविज्ञानेन मोहसंस्काराः क्षीणाः विवेक-भेदविज्ञान से मोह के संस्कार क्षीण होंगे । इन्द्रियों के तथा भविष्यन्ति। इन्द्रियमनोविषयपूत्तिकरणेन शरीरेण मन के विषयों की सम्पूर्ति करने में शरीर से जितना-जितना सहयोग १. आत्म-युद्ध कर्म को क्षीण करने का युद्ध है। इस युद्ध के
अनुभूति । शरीर-विवेक-शरीर से भिन्नता की अनुभूति । दो मुख्य शस्त्र हैं-परिज्ञा और विवेक-जानो और
भाव-विवेक-निर्ममत्व की अनुभूति । कर्म-विवेक-कर्म असहयोग करो। विवेक कई प्रकार का होता है । परिग्रह
से पृथक्त्व की अनुभूति । विवेक-धन, धान्य, परिवार आदि से पृथक्त्व की
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