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अ० ५. लोकसार, उ० ३. सूत्र ४६-५०
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यावान् यावान् सहयोगः तावान् तावान् मोहस्योपचयः, प्राप्त होता है, उतनी ही मात्रा में मोह का उपचय होता है और यावान् यावान् असहयोगः तावान् तावान् मोहस्यापचयः। जितना-जितना असहयोग प्राप्त होता है, उतनी ही मात्रा में मोह तेन यूयं विवेकाभ्यासं कुरुत ।
का अपचय होता है। इसलिए साधको ! तुम विवेक-भेदज्ञान का अभ्यास करो।
४८.चुए हु बाले गम्भाइसु रज्जइ।
सं०-च्युतः खलु बालः गर्भादिषु रज्यति । धर्म से च्युत होने वाला अज्ञानी साधक गर्म आदि में फंस जाता है ।
भाष्यम् ४८-यो मुनिः एवं सुदुर्लभं लोकसारं-विवेक जो मुनि इस प्रकार सुदुर्लभ लोकसार-विवेक को प्राप्त कर लब्ध्वा प्रमाद्यति न तु आत्मयुद्धे प्रवृत्तो भवति स धर्मात् प्रमाद करता है, आत्मयुद्ध में प्रवृत्त नहीं होता, वह धर्म से च्युत च्युतः गर्भादिषु' रज्यति ।' 'आदि'शब्दात् जन्ममरण- होकर गर्भ आदि में फंस जाता है। आदि शब्द से जन्म-मरण तथा दुःखानां परिग्रहः।
दुःखों का ग्रहण किया गया है। ४६. अस्सि चेयं पव्वुच्चति, रूवंसि वा छणंसि वा।
सं०-अस्मिन् चैतत् प्रोच्यते, रूपे वा क्षणे वा । इस अर्हत् शासन में यह बलपूर्वक कहा जाता है-रूप और हिंसा में आसक्त होने वाला च्युत हो जाता है।
भाष्यम् ४९-अस्मिन् प्रवचने प्रोच्यते--रूपे वा क्षणे इस अर्हत् शासन में कहा जाता है जो रूप और क्षणवा यो रज्यति स धर्मात् च्युतः गर्भादिषु पर्यटनं हिंसा में आसक्त होता है वह धर्म से च्युत होकर गर्भ आदि में पर्यटन करोति ।
करता है। रूपम्-चक्षुरिन्द्रियस्य विषयः इन्द्रियविषयः पदार्थो रूप का अर्थ है-चक्षुइन्द्रिय का विषय, इन्द्रिय-विषय वा। क्षणम्-हिंसा।
अथवा पदार्थ । क्षण का अर्थ है-हिंसा । ५०. से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे ।
सं०-स खलु एकः संविद्धपथः मुनिः अन्यथा लोकमुपेक्षमाणः । केवल वही मुनि अपने पथ पर आरूढ रहता है, जो लोक को भिन्न दृष्टि से देखता है।
भाष्यम् ५०-रूपासक्तो मनुष्यो जगति रूपमेव सारं जो मनुष्य रूप से आसक्त होता है वह जगत् में रूप को ही मन्यते, हिंसासक्तो मनुष्यश्च हिंसामेव समस्यायाः सार मानता है और हिंसा में आसक्त मनुष्य हिंसा को ही समस्या का समाधानं मन्यते । मुनेः दृष्टिकोणः परिवर्तितो भवति, समाधान मानता है । मुनि का दृष्टिकोण भिन्न होता है, इसलिए वह तेन स तं विषयलोक हिंसालोकं च अन्यथा उपेक्षते । स उस विषयलोक और हिंसालोक को अन्यथा देखता है, भिन्नदृष्टि रूपे अनासक्तः सन् मन्यते क्षणभंगुरमिदं परिणामकाले से देखता है । वह रूप मे अनासक्त रह कर यह मानता है कि यह दुःखदं च । तथा स मन्यते हिंसास्ति सर्वासां समस्यानां रूप क्षणभंगुर है, परिणाम-काल में दुःख देने वाला है। वह यह भी मूलम् । हिंसाप्रसूतानि सर्वाणि दुःखानि च । य एवं मन्यते मानता है कि हिंसा सभी समस्याओं का मूल है। सभी दुःख हिंसा से स एव एको मुनिःसंविद्धपथो भवति, स्वीकृतात् मार्गात् उत्पन्न होते हैं। जो ऐसा मानता है केवल वही मुनि अपने पथ पर च अच्युतः इति तात्पर्यम् ।
आरूढ रहता है। इसका तात्पर्य है कि वह अपने स्वीकृत मार्ग से
च्युत नहीं होता। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७६ : गम्मातिसु दुक्खविसेसेसु, ते ३. वही, पृष्ठ १७६ : 'कसि वा', स्वप्रधानविषयाः तेण
य गम्भाति पसवकोमारजोवणमनिममरणणरगदुक्खावसाणो तग्गहणं, उक्तं चसंसारपवंचो, अहवा गमजम्ममरणणरगदुक्खेसुत्ति एतेसु
'चालषा चक्षुषा येन, विषया रूपिणिस्सिता। गर्भादिसु देहविगप्पेसु संसारविगप्पेसु वा।
रूपप्रेष्ठाश्च सर्वेपि, रूपस्य ग्रहणं ततः ॥' २. वही, पृष्ठ १७६ : रज्जति वा पञ्चति वा उज्मतिबा एगट्ठा।
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