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अ० ५. लोकसार, उ० ३. सूत्र ३६-४२
सर्वभूतेषु समता', लाभालाभेषु समता', प्रियाप्रिययोः सभी प्राणियों के प्रति समता, लाभ और अलाभ में समता, समता-ईदशी समतां उपसंपद्यमानस्य संकल्पविकल्पयोः प्रिय और अप्रिय स्थिति में समता- इस प्रकार की समता को जो नाशो जायते। अहिंसादयः सर्वे धर्माः सन्ति समतायां व्यक्ति स्वीकार करता है, उसके संकल्प-विकल्प का नाश हो जाता प्रतिष्ठिताः ।
है। अहिंसा आदि सभी धर्म समता में प्रतिष्ठित हैं। सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक चारित्र- सामायिक के तीन प्रकार हैं-सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक-अस्य त्रिविधस्यापि सामायिकस्य समतायां सामायिक तथा चारित्रसामायिक । इन तीनों का समावेश 'समता' में अनुप्रवेशः।
होता है। ४१. जहेत्थ मए संधी झोसिए, एवमण्णत्थ संधी दुज्झोसिए भवति, तम्हा बेमि–णो णिहेज्ज वीरियं ।
सं०-यथात्र मया संधिः जोषितः, एवमन्यत्र संधिः दुर्बोध्यो भवति । तस्माद् ब्रवीमि-नो निहन्यात् वीर्यम् । भगवान महावीर ने कहा-'जैसे मैंने ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्वित आराधना यहां की है, वैसी आराधना अन्यत्र दुर्लभ है। इसलिए मैं कहता हूं कि शक्ति का गोपन मत करो।'
भष्यम् ४१–सन्धिविवरम् । तच्च शरीरगतं चैतन्य- संधि का अर्थ है-विवर। शरीरगत विवर चैतन्यकेन्द्र केन्द्रम् । ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको वा भावसन्धिः । कहलाता है । यह द्रव्य संधि है। भाव सन्धि है-ज्ञान, दर्शन और भगवान महावीरः शिष्यान् प्रेरयन स्वयं प्रवक्ति-यथा चारित्र । भगवान् महावीर शिष्यों को प्रेरित करते हुए स्वयं कहते अत्र-अनेकान्तदष्टे: अपरिग्रहस्य समताया वा साध- हैं, जैसे मैंने यहां-अनेकांतदृष्टि, अपरिग्रह और समता की साधना में नायां मया महता वीर्येण सन्धिरन्विष्ट : आसे वितश्च, महान् पराक्रम के द्वारा सन्धि-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्वित एवं अन्यत्र-एकांतदृष्टौ परिग्रहवैषम्यान्वित- आराधना का अन्वेषण किया है और उसका पालन किया है, वैसा साधनायां तस्य अन्वेषणं आसेवनञ्च दुष्करमस्ति । अन्यत्र अर्थात् एकांतदृष्टि, परिग्रह और विषमता की साधना में संधि तस्माद ब्रवीमि-नो निहन्यात्-न निगृहेत वीर्यम् । का अन्वेषण और परिपालन दुष्कर है । इसलिए मैं कहता हूं-शक्ति परिग्रहवैषम्यान्विते मार्गे सन्धेरासेवनायायासं कृत्वा का गोपन मत करो। परिग्रह और विषमतायुक्त मार्ग में सन्धि के वीर्यं निहतं न कुर्यात् तथा अपरिग्रहसमतान्विते मार्गे अनुपालन का आयास कर अपनी शक्ति को मत गंवाओ तथा अपरिग्रह सन्धेरासेवनायां वीर्यस्य निगृहनं न कुर्यात् ।
और समतायुक्त मार्ग में सन्धि की आराधना करने में शक्ति का गोपन
मत करो। प्रस्तुतवक्तव्यस्य संवादित्वं सम्पूर्णे नवमाध्ययने प्रस्तुत वक्तव्य की संवादिता पूरे नौवें अध्ययन में प्राप्त होती लभ्यते ।
४२. जे पुव्वट्ठाई, णो पच्छा-णिवाई । जे पुट्ठाई, पच्छा-णिवाई। जे णो पुन्वट्ठाई, णो पच्छा-णिवाई।
सं०-यः पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती, यः पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती, यः नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती । कोई पुरुष पहले उठता है और जीवन-पर्यन्त उत्थित ही रहता है-कभी नहीं गिरता। कोई पुरुष पहले उठता है और बाद में गिर जाता है। कोई पुरुष न पहले उठता है और न बाद में गिरता है।
भाष्यम् ४२-परिणामवैचित्र्यात् सर्वे पुरुषाः न परिणामों की भिन्नता के कारण सभी मनुष्य समान शक्ति सदशवीर्या भवन्ति । तेषां नानात्वमिह दर्शितम् । वाले नहीं होते । प्रस्तुत आलापक में उन मनुष्यों का नानात्व बताया केचिन्महावीर्या भवन्ति । ते पूर्वमुत्थाय नो पश्चा- गया है। कुछ व्यक्ति महान् शक्ति-सम्पन्न होते हैं। वे पहले उठते १. उत्तरायणाणि, १९१२५ ।
वृत्तिः-त्रिविधं च त्रिभेवं सामायिकम्, अनुस्वारलोपात् २. वही, १९९०।
सम्यक्त्वं सम्यक्त्व सामायिकम्, श्रुतं श्रुतसामायिकम्, तथा ३. वही, ३२११०६,१०७ ।
चारित्रं चारित्रसामायिकम् । ४. विशेषावश्यकमाष्य, गाथा २६७३:
५. आचारांग चूणि, पृष्ठ १७३ : णिहणंति वा गृहणंति वा सामाइयं च तिविहं सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च ।
छायणंति वा एगट्ठा।
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