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अ० ५. लोकसार, उ० १. सूत्र ३-६
भाष्यम् ५ – स कामासक्तो मनुष्यः कुशाग्रे प्रणुन्नंलम्बितं प्रकम्पितं वा, वातेरितं निपतितं जलबिन्दुमिव जीवितं पश्यत्येव किन्तु तस्य बालस्य अशस्य बुद्धा मन्दस्य ' वस्तुतो जीवनस्य अनित्यतामविजानतः जीवितं सफलं न भवति ।
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६. कूराणि कम्माणि वाले पकुध्वमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विप्यरियासुवेद |
सं० क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणः तेन दुःखेन मूढः विपर्यासमुपैति ।
अज्ञानी मनुष्य क्रूर कर्म करता हुआ दुःख का सृजन करता है। वह उस दुःख से मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है ।
भाष्यम्स बालः जीवितमनित्यं जानन्नपि मोहमूच्छितः सन् परमार्थतो न जानाति, अत एव क्रूराणि कर्माणि प्रकुरुते । शेषं (२।६९) सूत्रस्य भाष्यं द्रष्टव्यम् ७. मोहेण गम्मं मरणाति एति । संमोहेन गर्भ मरणादि एति ।
वह मोह के कारण बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होता है।
भाष्यम् ७ पूर्व ३१४ सूत्रे उक्तम्- मायी प्रमादी पुनः गर्भमेति । अत्रोच्यते मोहेन मूढः मनुष्यः गर्भं मरणादि एति । आत्मनः अस्तित्वं नास्ति पुनर्जन्महेतु:, किन्तु तस्य हेतुरस्ति मोहः ।
८. एत्थ मोहे पुणो-पुणो ।
सं० - अत्र मोहः पुनः पुनः ।
इस भवचक्र में बार-बार मोह उत्पन्न होता है ।
भाष्यम् अत्र जन्ममरणपत्रे पुनः पुनर्मोह उत्पद्यते । अस्य परम्परा ३८३ सूत्रे द्रष्टव्या ।
भाष्यम् ९ - परिज्ञा द्विविधा अस्ति ज्ञपरिज्ञाहेयोपादेयज्ञानम् प्रत्याख्यानपरिज्ञा हेयस्य परित्यागः । मोहेन संशयः समुत्पद्यते । पुनर्जन्म विद्यते अथवा न इति उभयांशावलंबः प्रत्ययः संशयः । यस्य पुनर्जन्मनि
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वह कामासक्त मनुष्य कुश के अग्रभाग पर टिकी हुई, अस्थिर तथा वायु से प्रकंपित होकर भूमी पर गिरी हुई जल-बिन्दु की भांति जीवन को देखता है, किन्तु वह जन और बुद्धि से मंद व्यक्ति वस्तुतः जीवन की अनित्यता को नहीं जानता। उसका जीवन सफल नहीं होता ।
१ (क) आचारांग चूर्णि, पृष्ठ १५८ : एवमवधारणे ।
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८० : एवमिति यथा ।
२. आचारांग चूणि, पृष्ठ १५९ : मंदो सरीरे बुद्धीए य
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वह अज्ञानी जीवन को अनित्य जानता हुआ भी मोह से मूच्छित होने के कारण वस्तुतः उसे नहीं जानता, इसीलिए वह क्रूर कर्म करता है। शेष २०६९ का भाग्य इष्टव्य है ।
६. संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति ।
सं० - संशयं परिजानतः संसारः परिज्ञातो भवति संशयं अपरिजानतः संसारः अपरिज्ञातो भवति ।
जो संशय को जानता है, वह संसार को जान लेता है-ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को नहीं जान पाता ।
पहले ३।१४ सूत्र में कहा है— मायी और प्रमादी व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है। यहां कहा है-मोह से मूढ मनुष्य बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होता है। आत्मा का अस्तित्व जन्म-मरण का हेतु नहीं है। जन्म मरण का हेतु है— मोह ।
इस जन्म मरण के चक्र में बार-बार मोह उत्पन्न होता है । मोह की परम्परा के लिए द्रष्टव्य है– ३१८३ का सूत्र ।
परिज्ञा दो प्रकार की है—
१. ज्ञपरिज्ञा हेय और उपादेय का ज्ञान । २. प्रत्याख्यानपरिज्ञा हेय का परित्याग । मोह से संशय पैदा होता है । पुनर्जन्म है अथवा नहीं—इस
एक्क्को उपचपे अवचपे प इह तु भावमंदोऽवषये
द्रष्टव्यः ।
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