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आचारांगभाध्यम
समुच्छ्वसिता भवति । यावत् अतीन्द्रियचेतनाया: उच्छ्वसित होती है। जब तक अतीन्द्रिय-चेतना का जागरण नहीं जागरणं न स्यात् तावत् कामा एव गुरवः-मूल्यवन्त: होता तब तक 'काम' ही गुरु हैं-मूल्यवान् अथवा सारभूत हैं-ऐसी सारभूताः वा इति मतिरुत्पद्यते । तत्र हिंसायाः सहजं बुद्धि उत्पन्न होती है। उस स्थिति में हिंसा को सहज अवकाश मिल अवकाशो भवति ।
जाता है। ३. तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे। सं०-ततः स मारस्य अन्तः, यतः स मारस्य अन्तः ततः स दूरे। कामना प्रधान पुरुष मदनकाम के प्रभाव-क्षेत्र में चला जाता है । मदनकाम से प्रभावित होने के कारण वह वास्तविक सुख से दूर हो जाता है।
भाष्यम् ३-यस्य कामाः गुरवो भवन्ति स काम- जिसके काम गुरु होते हैं, वह व्यक्ति काम की गुरुता के गुरुत्वात् मारस्य अन्तर्-मध्ये प्रभावक्षेत्रे वा वर्तते। कारण मार के मध्य या प्रभाव-क्षेत्र में होता है। जब वह मार के यतः स मारस्य अन्तर् वर्तते ततः स भयशोकादि- प्रभाव-क्षेत्र में होता है तब वह भय, शोक आदि मोहात्मक भावों से मोहात्मकभावाभिभूतत्वाद् वस्तुतः सुखाद् दूरे वर्तते। अभिभूत होने के कारण वास्तविक सुख से दूर होता है। इसका तात्पर्यमिदं इच्छाकामः पुरुषं मदनकामं प्रति प्रेरयति । तात्पर्य यह है- इच्छाकाम पुरुष को मदनकाम के प्रति प्रेरित करता मदनकामासेवायां आसक्तः पुरुषः तृप्त्यात्मकं सुखं है। मदनकाम के आसेवन में आसक्त पुरुष कभी तृप्ति का सुख नहीं नाप्नोति । ततः स अमृताद् निर्वाणाद् निर्वाणोपायाद् पा सकता। इसलिए वह अमृत, निर्वाण और निर्वाण प्राप्ति के उपायों वा दूरे वर्तते ।
से दूर हो जाता है। मारः-मदनकामः । चूर्णी अस्य पदस्य कर्म, भवः मार का अर्थ है-मदनकाम । चूणि में मार के दो अर्थ प्राप्त इति अर्थद्वयं लभ्यते । वत्तौ च आयुषः क्षयः इति हैं-कर्म और भव । वृत्ति में इसका अर्थ आयुष्य का क्षय किया है। व्याख्यातमस्ति ।' ४. णेव से अंतो, णेव से दूरे। सं०---नैव सोऽन्तः, नैव स दूरे । वह इन्द्रिय-विषयों के निकट भी नहीं है और उनसे दूर भी नहीं है।
भाष्यम ४-कश्चित् पुरुषः मदनकामस्य संक्लेश- कोई पुरुष मदनकाम के संक्लिष्ट विपाकों को जानकर करान् विपाकान् ज्ञात्वा इन्द्रियविषयान् जिहासति, किन्तु इन्द्रिय-विषयों को त्यागना चाहता है, किन्तु वैराग्य-भावना की वैराग्यभाबनायाः अपरिपक्वदशायां तस्य जिहासा न अपरिपक्वदशा में उसके त्याग की चाह सफल नहीं होती। सूत्रकार ने सफलतामालिंगति। सूत्रकारेण तादृशस्य पुरुषस्य वैसे व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण प्रस्तुत सूत्र में किया है जिसने मनोदशायाः चित्रणं इह कृतम्-येन विषयाः त्यक्ताः विषयों को छोड़ दिया, वह उनके बीच नहीं है, किन्तु उसने उन अतः स तेषामन्त व वर्तते, तेषां कामनाः न त्यक्ताः विषयों की कामनाओं को नहीं छोड़ा अतः वह उनसे दूर भी नहीं है । अतः तेभ्यो दूरमपि न वर्तते । ५. से पासति फुसियमिव, कुसग्गे पणुन्नं णिवतितं वातेरितं । एवं बालस्स जीवियं, मंदस्स अविजाणओ।
सं०-स पश्यति पृषतमिव कुशाग्रे प्रणुन्नं निपतितं वातेरितम् । एवं बालस्य जीवितं मंदस्य अविजानतः । वह जीवन को कुश की नोक पर टिके हुए अस्थिर एवं वायु से प्रकम्पित होकर गिरे हुए जल-कण की भांति देखता है। बाल, मन्द और अज्ञानी का जीवन भी ऐसा ही अनित्य होता है।
१. (क) आचारांग चूणि १५८ : मारयते यस्मान्ममारि
भूतश्च मारयति वाऽन्तो अनुसमयं मरणादपि कर्म भवो वा भवेन्मारः।
(ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १८० : मरणं मारः- आयुषः
क्षयः ।
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