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अ०५. लोकसार, उ० २. सूत्र २० ।
२४७ एवं ओरालियसरीरंते ठितं गतं ति एगळं, तं च है-इनमें अन्त शब्द विशेष अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसी प्रकार आतप्पदेसफड्डगावहि, एगदिसोवलंभाओ य अंतगत- औदारिक शरीर के अंत में स्थित 'अन्तगत' कहलाता है । स्थित और मोधिण्णाणं भण्णति । अहवा सव्वातप्पदेसविसुद्धेसु वि गत- दोनों एकार्थवाची हैं। शरीर के अन्तर्वर्ती आत्मप्रदेशगत ओरालियसरीरेगतेण एगदिसिपासणगतं ति अंतगतं स्पर्धकों की विशुद्धि किसी एक दिशा में उपलब्ध होती है, इसलिए भण्णति।"
उस विशुद्धि से होने वाला अवधिज्ञान अन्तगत कहलाता है। अथवा सर्व आत्मप्रदेशों की विशुद्धि होने पर भी औदारिक शरीर के एक अन्त (छोर) द्वारा एक दिशा में बोध करने वाला अवधिज्ञान अन्तगत
कहलाता है। एतत्संवादी सिद्धान्तोऽन्यत्रापि लभ्यते ।
इसका संवादी सिद्धांत अन्यान्य ग्रंथों में भी मिलता है। अवधिज्ञानप्रसंगे करणपदस्यार्थो भवति शरीरा- अवधिज्ञान के प्रसंग में 'करण' शब्द का अर्थ है-शरीर का वयवः शरीरैकदेशो वा, यस्माद् अवधिज्ञानी विषयं अवयव, शरीर का एक भाग, जिसके माध्यम से अवधिज्ञानी पुरुष जानाति ।' करणानि नानाकाराणि भवन्ति ।' विषय का अवबोध करता है । 'करण' अनेक आकार वाले होते हैं।
सुश्रतसंहितायां दशोत्तरे संधिशते सप्तोत्तरं सुश्रतसंहिता में २१० संधियां और १०७ मर्म-स्थानों का उल्लेख मर्मशतमिति उपलभ्यते। अस्थिपेशीस्नायूनां संयोग- प्राप्त है। अस्थि, पेशी और स्नायुओं का संयोगस्थल 'संधि' कहलाता स्थलं सन्धिः । एतेऽष्टविधाः सन्ति । मर्मस्थानेषु है। ये आठ प्रकार के हैं । मर्म-स्थानों में प्राण की बहुलना होती है । प्राणस्य बाहुल्यमस्ति । मल्लिषेणस्य मतमिदम्- आचार्य मल्लिषेण का अभिमत है—शरीर के वे अवयव जहां आत्मबहभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवाः मर्माणि ।' यानि प्रदेशों की बहलता होती है, मर्म-स्थान कहलाते हैं। जो चतन्यचैतन्यकेन्द्राणि तानि मर्मस्थानवर्तीन्येव । प्राणचैतन्य- केन्द्र हैं वे इन्हीं मर्म-स्थानों के भीतर हैं। हठयोग में भी प्राण १. (क) नन्दी चूणि, पृष्ठ १६ ।
६. (क) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५।२४ : अत्रिदेवकृत (ख) वही, पृष्ठ १५ : सोय खयोवसमो गुणमंतरेण
अनुवाद, पं० श्री लालचन्द्र वैद्यकृत विशेष मन्तव्य गुणपडिवत्तितो वा भवति । गुणमंतरेण जहा
पृष्ठ ३२० : 'अस्थियों के संयोग-स्थल का नाम गगणमच्छादिते अहापवत्तितो छिदेणं दिणकर
'सन्धि' है। यद्यपि वे परस्पर सर्वथा मिली या जुड़ी किरण व विणिस्सिता दण्वमुज्जोवंति तहाऽवधि
नहीं होती, उनके मध्य में श्लेषण नामक कफ आवरणखयोवसमे अवधिलंभो अधापत्तितो
विद्यमान रहता है । .........."सन्धि को सन्धान एवं विष्णेतो।
श्लेष भी कहते हैं। २. (क) शिवसंहिता, २६० :
(ख) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५२८: शिरः कपाले रुद्राक्षविवरं चिन्तयेद् यदा।
अस्थनां तु सन्धयो ह्य ते केवलाः परिकीत्तिताः । तदा ज्योति प्रकाशः स्याद् विद्युत्पुञ्जसमप्रभः॥
पेशीस्नायुसिराणां तु सन्धिसंख्या न विद्यते ॥ (ख) विज्ञानानुसारेणापि पीयूषप्रन्थिः (पिच्यूटरी) विवरे ७. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ५२२७ : त एते सन्धयोऽष्टस्थित इति सम्मतम् ।
विधा:-कोर-उदूखल-सामुद्ग-प्रतर - तुन्नसेवनी-वायस३. धवला, पुस्तक संख्या-१३, खण्ड सं. ५, भाग ५, सूत्र
तुण्ड-मण्डल-शङ्खावर्ताः। ५६ पृ० २९६ : ओहिणाणं अणेयखेत्तं चेव, सव्वजीवपदेसेसु
एतैः सह करणसंस्थानानि तुलनीयानि । अक्कमेण खओवसमं गदेसु सरीरेगदेसेणेव बज्झट्टावगमाण
८. वही, शारीरस्थानम्, ६।१६ । ववत्तीदो। ण, अण्णस्थ करणाभावेण करणसरूवेण परिणद- ९. स्याद्वादमंजरी, पृष्ठ ७७ । सरीरेगदेसेण तदवगमस्स विरहाभावादो।
१०. (क) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्, ६।३-४ : तानि मर्माणि ४. षट्खण्डागम, पुस्तक १३, खण्ड सं० ५, भाग ५, सूत्र ५७,
पञ्चात्मकानि भवन्ति, तद्यथा-मांसमर्माणि, ५८, पृ० २९६ : खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा ॥५७।।
सिरामर्माणि, स्नायुमर्माणि, अस्थिमर्माणि, सन्धिसिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-गंदावत्तादीणि संठाणाणि
मर्माणि चेति। .........." तत्रैकादश मांसमर्माणि, णादव्वाणि भवंति ॥५८।।
एकचत्वारिंशत् सिरामर्माणि, सप्तविंशतिः स्नायु५. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थानम्. ५।२६, ६।३१ ।
मर्माणि, अष्टावस्थिमर्माणि, विशतिः सन्धिमर्माणि चेति । तदेतत् सप्तोत्तरं मर्मशतम् ।
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