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अ०४. सम्यक्त्व, उ०२. सूत्र १७-२० १९. एगे वयंति अदुवा वि णाणो, णाणी वयंति अदुवा वि एगे।
सं० -एके वदन्ति अथवा अपि ज्ञानिनः, ज्ञानिनः वदन्ति अथवा अपि एके ? यह बात अन्य दार्शनिक कहते हैं या ज्ञानी भी कहते हैं ? यह ज्ञानी कहते हैं या अन्य दार्शनिक भी कहते हैं ?
भाष्यम् १९-पूर्वस्मिन् सूत्रे हिंसाया: फलं प्रतिपा- इससे पूर्व के सूत्र में हिंसा के फल का प्रतिपादन हुआ है। दितम् । तत् सर्वेषां दार्शनिकानां सम्मतमस्ति अथवा यह तथ्य सभी दार्शनिकों को सम्मत है या नहीं, यह जिज्ञासा प्रस्तुत नास्ति, इति जिज्ञासां अभिव्यनक्ति प्रस्तुतसूत्रम्-एके सूत्र में अभिव्यक्त है-कुछ दार्शनिक पूर्वोक्त हिंसाफल की बात कहते दार्शनिका: पूर्वोक्तं हिंसाफलं वदन्ति अथवा ज्ञानिनो हैं अथवा ज्ञानी ऐसा कहते हैं। इस प्रश्न का समाधान उत्तरवर्ती बदन्ति ? अस्याः समाधानं उत्तरवत्तिसूत्रेषु (२०-२६) (२०-२६) सूत्रों में प्राप्त है। समुपलभ्यते ।
एके इति केचिद् दार्शनिकाः, ज्ञानिन इति सम्यग- एके का अर्थ है कुछ दार्शनिक । ज्ञानी का अर्थ है -सम्यग्दर्शनमापन्नाः ।
दर्शन को प्राप्त व्यक्ति । गतप्रत्यागतक्रमेण एवं वाच्यम्--ज्ञानिनो वदन्ति गतप्रत्यागत क्रम से इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है - अथवा एके वदन्ति ?
ज्ञानी ऐसा कहते हैं अथवा कुछ दार्शनिक ?
२०. आवंति केआवंति लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति-से दिलैंच णे, सुयं च णे, मयं च णे विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे-'सब्वे पाणा सब्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता हंतव्वा, अज्जावेयव्वा परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । एत्थ वि जाणह णस्थित्थ दोसो।' सं०-यावन्तः केचन लोके श्रमणाश्च माहनाश्च पृथक् विवादं वदन्ति ---तद् दृष्टं च नः, श्रुतं च नः, मतं च नः, विज्ञातं च नः, ऊवं अधः तिर्यग् दिशासु सर्वतः सुप्रतिलिखितं च नः –सर्वे प्राणाः, सर्वे भूताः, सर्वे जीवाः, सर्वे सत्त्वाः हन्तव्याः आज्ञापयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्याः, उद्घोतव्याः । अत्रापि जानीथ नास्ति अत्र दोषः । दार्शनिक जगत में कुछ श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी मतवाद का निरूपण करते हैं। कुछ कहते हैं-'हमने देखा है, सुना है, मनन किया है और मली-भांति समझा है, ऊंची, नीची और तिरछी-सभी दिशाओं में सब प्रकार से इसका निरीक्षण किया है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन किया जा सकता है, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें वास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनका प्राण-वियोजन किया जा सकता है। इसमें भी तुम जानो कि इसमें कोई दोष नहीं है।
भाष्यम् २०–केचन श्रमणा माहनाश्च परस्पर कुछ श्रमण और ब्राह्मण परस्पर-विरोधी मतवाद का निरूपण विवादं कुर्वन्ति-अस्माकं एतद् दृष्टं, श्रुतं, मतं, करते हैं। वे कहते हैं-'हमने देखा है, सुना है, मनन किया है, विज्ञातं, सर्वतः सप्रेक्षितमस्ति-प्राणिनां वधे नास्ति भलीभांति समझा है और चारों ओर से इसका निरीक्षण किया है कि दोषः ।
'प्राणियों' के वध में कोई दोष नहीं है।' किमेतादशं हिंसायाः समर्थनं कुर्वाणाः श्रमणा: इस प्रसंग में आश्चर्य के साथ यह जिज्ञासा होती है कि क्या ब्राह्मणा अपि आसन इति साश्चर्य जिज्ञासा जायते। हिंसा का इस प्रकार समर्थन करने वाले श्रमण और ब्राह्मण भी थे? नात्र विस्मरणीयं, अहिंसायाः यादशी प्रतिष्ठा अद्य हमें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि अहिंसा की जैसी प्रतिष्ठा विद्यते तादशी भगवतो महावीरस्य युगे नासीत् । तदानीं आज है वैसी प्रतिष्ठा भगवान् महावीर के युग में नहीं थी। उस धर्मार्थमपि याज्ञिकी हिंसा प्रचलिता आसीत्। मांसा- समय धर्म के लिए भी याज्ञिकी हिंसा प्रचलित थी। मांसाहार हारस्य हेतवेऽपि हिंसायाः समर्थनं संजायमानमासीत्। के लिए भी हिंसा का समर्थन किया जाता था। हिंसा का समर्थन तेषां हिंसां समर्थयतां विदुषां अभिमतमस्ति इह सूत्रे करने वाले उन विद्वानों का अभिमत प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित है। प्रदर्शितम् ।
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