________________
अ०४. सम्यक्त्व, उ० ३. सूत्र ३३-३४
२२३ भाष्यम् ३३-अत्र धुननकृशीकरणजरणविषये असौ धुनन, कृशीकरण और जीर्ण करने के विषय में यह दृष्टांत दृष्टांतः, यथा-अग्निः जीर्णानि काष्ठानि प्रमथ्नाति है, जैसे--अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही एवं समाहितात्मा' अनिहतः पुरुषः कर्माणि समाहित आत्मा वाला तथा कषायों से अप्रताडित पुरुष कर्मों को नष्ट प्रमथ्नाति ।।
कर देता है।
३४. विगिच कोहं अविकंपमाणे, इमणिरुद्धाउयं संपेहाए ।
सं०-विविङ क्ष्व क्रोधं अविकम्पमानः इमं निरुद्धायुष्कं सम्प्रेक्ष्य । क्रोध की कालावधि सीमित है-यह संप्रेक्षा करता हुआ अकम्पित रह कर क्रोध का विवेक कर।
भाष्यम् ३४-क्रोधस्य विवेक कुरु। आत्मप्रदेशानां क्रोध का विवेक कर। जब आत्म-प्रदेश प्रकंपित होते हैं तब प्रकम्पनावस्थायां क्रोधः समुत्पद्यते । अतो निर्दिष्टम्- क्रोध उत्पन्न होता है, इसलिए कहा है-अकंपित रह कर क्रोध का अविकम्पमानः क्रोधस्य विवेक कुरु। अप्रकम्पावस्थायां विवेक कर। अप्रकंप अवस्था में क्रोध स्वयं उपशांत हो जाता है। क्रोधः स्वयं प्रशाम्यति । इदं आयुष्कं निरुद्ध सम्प्रेक्ष्य 'यह आयु सीमित है' यह संप्रेक्षा कर क्रोध को दूर कर, यह क्रोधं व्यपनय इति आलम्बनसूत्रम् । एषा चूणिवृत्ति- आलम्बन सूत्र है । यह व्याख्या चूणि और वृत्ति द्वारा सम्मत है । इस सम्मता व्याख्या । इमं क्रोधं निरुद्धायुष्कं सम्प्रेक्ष्य इति क्रोध की कालावधि सीमित है यह संप्रेक्षा कर'- यह व्याख्या व्याख्या अधिकं संगच्छते । अत्र मनुष्यस्य आयुषः प्रसङ्गः अधिक संगत लगती है। यहां मनुष्य के आयुष्य का प्रसंग प्रकरणगत अध्याहृतो भवति, न तु प्रकरणगतः। क्रोधस्य प्रसङ्गः नहीं है, वह अध्याहृत है। क्रोध का प्रसंग चल रहा है। क्रोध शाश्वत प्रकृतोस्ति । क्रोधः न शाश्वतोऽस्ति, सोऽस्ति क्षणिकः, नहीं है, वह क्षणिक है। इसलिए उसका अपनयन किया जा तेन तस्य विवेकः कर्तुं शक्यः ।
सकता है। निरुखम् -परिमितं अल्पकालिक वा। ..
निरुद्ध का अर्थ है-परिमित अथवा अल्पकालिक ।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ १४६, १४७ : अप्पा समाहितो जस्स नाणादिसु अप्पए वा जस्स समाहिताणि णाणातीणि सो भवति, सुविसुद्धासु वा लिस्सासु आता जस्स आहितो, जं
मणितं आरोवितो, एवं वा अत्तसमाहितो। २. इस उपमा-पद में कर्म-शरीर को प्रकम्पित करने के दो साधन निर्दिष्ट हैंसमाधि (शुद्ध चैतन्य में एकाग्रता) और अनासक्ति। इन साधनों के निर्देश से भी यह स्पष्ट है कि इस प्रकरण में शरीर से तात्पर्य 'कर्म-शरीर' है।
इस औदारिक (स्थूल) शरीर को कृशता यहां विवक्षित नहीं है । एक साधु ने उपवास के द्वारा शरीर को कृश कर लिया। उसका अहं कृश नहीं हुआ था। वह स्थानस्थान पर अपनी तपस्या का प्रदर्शन करता और प्रशंसा चाहता था। एक अनुभवी साधु ने उसकी भावना को समझते हुए कहा-'हे साधो ! तुम इंद्रियों, कषायों और गौरव (अहंभाव) को कृश करो। इस शरीर को कृश कर लिया, तो क्या हुआ? हम तुम्हारे इस कृश शरीर को प्रशंसा नहीं करेंगे'-- इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु । णो वयं ते पसंसामो, किसं साहुसरोरगं ॥
(निशीय भाष्य, गा० ३८५८)
भगवान् महावीर ने कर्म-शरीर को कृश करने की बात कही है। स्थूल शरीर कृश हो या न हो, यह गौण बात है। ३. चूर्णिकारेण अस्य व्याख्या एवं कृतास्ति-'इयं' ति
माणुस्सगं, णिरुद्धं णाम वरिससयाओ उद्धं न जीविज्जति, 'सम्म पेहाए' सपेहाए, कि सम्म पेक्खति ? जइ ताव नेरइयस्स जंतुणो, अहवा चरिमसरीरस्स ण पुणो आउगं भवतीति, तंपि समए समए णिज्जरमाणेहिं निरुद्धमितिकाउं केचिरं एतं तवचरणदुक्खं भविस्सति ? अहवा सम्वआसवनिरोहो निरुद्धं काउं, अहवा संजयाणं इमेण निरुद्धण आउएण, जं भणियं परिमितेण ।
(आचारांग चूणि, पृष्ठ १४७) वृत्तिकारेण एवं व्याख्यातम्-'इदं' मनुष्यत्वं निबद्धायुष्क' निरुद्धम्-परिगलितमायुष्कं (यत्र तत्) 'सम्प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य क्रोधादिपरित्यागं विदध्यात् ।
(आचारांग वृत्ति, पत्र १७३) ४. स्थानाङ्ग (४।१,२) दीर्घस्य प्रतिपक्षे निरुद्धपदस्य प्रयोगो
दृश्यते-'दोहेणं परियाएणं.."णिरुद्धणं परियाएणं ।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org