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अ०४. सम्यक्त्व, उ०४. सूत्र ४५-५०
२२६ नोरस्तित्वे सत्येव वर्तमानजन्मनोऽस्तित्वं संपद्यते इति पूर्वजन्म और पुनर्जन्म- इन दोनों का अस्तित्व होने पर ही वर्तमान तात्पर्यम् ।
जन्म का अस्तित्व हो सकता है। यस्य नास्ति अतीतानागतजन्मविषये संशयः स एव जिस पुरुष में अतीत और अनागत जन्म विषयक संशय नहीं वर्तमानक्षणे विषयाशंसानिरोधं कर्तुं प्रयतते । __ है वही वर्तमान क्षण में विषयों की आशंसा का निरोध करने का
प्रयत्न करता है।
४७. से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सं०-स खलु प्रज्ञानवान् बुद्धः आरम्भोपरतः । वही प्रज्ञानवान् और बुद्ध पुरुष आरम्भ से उपरत होता है।
भाष्यम् ४७ --स विषयाशंसाविमुक्तः प्रज्ञानवान्, वह विषयाशंसा से मुक्त प्रज्ञानवान् तथा बुद्ध पुरुष ही हिंसा बुद्धः पुरुषः आरम्भादुपरतो भवति। मनुष्यः विषय- से उपरत होता है। मनुष्य विषय और कषाय के कारण ही हिंसा कषायनिमित्तं आरम्भे प्रवर्तते । यस्य विषयाशंसा में प्रवृत्त होता है। जिसकी विषयाशंसा-भोगेच्छा निवृत्त हो जाती निवर्तते स तस्मान्निवर्तते।
है, वह आरंभ से निवृत्त हो जाता है। प्रज्ञानं-निश्चयनयः । बर:-विवेकसंपन्नः । प्रज्ञान का अर्थ है-निश्चय दृष्टिकोण । बुद्ध का अर्थ हैआरंभः-पृथिव्यादिजीवानां उपधातः, सावद्यानुष्ठान, विवेक से संपन्न । आरंभ के चार अर्थ हैं-पृथिवी आदि जीवों का द्रव्योत्पादनव्यापारः असंयमो वा।
उपघात, सावध प्रवृत्ति, द्रव्यों का उत्पादक व्यापार-व्यवसाय तथा असंयम ।
४८. सम्ममेयंति पासह । सं.-सम्यग् एतदिति पश्यत । यह सत्य है, इसे तुम देखो।
भाष्यम् ४८-विषयाशंसायां निवृत्तायामेव विषयाशंसा की निवृत्ति होने पर ही हिंसा की निवृत्ति होती हिंसायाः निवृत्तिर्भवति । एतद् सत्यम् इति यूयं पश्यत । है । यह सत्य है, इसे तुम देखो।
४६. जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारुणं । सं०-येन बन्धं वधं घोरं परितापं च दारुणम् । भोगेच्छा से प्रेरित पुरुष घोर बन्ध, वध तथा दारुण परिताप का प्रयोग करता है।
भाष्यम् ४९-विषयाशंसया प्रेरितः मनुष्यः घोरं विषयाशंसा से प्रेरित मनुष्य घोर बन्ध, वध और दारुण बन्धं वधं दारुणं च परितापं करोति । बन्धः वधश्च परिताप का प्रयोग करता है। बंध और वध शारीरिक होता है और शारीरिकः, परितापश्च मानसिकः। घोरं दारुणमिति परिताप मानसिक । घोर और दारुण-ये दोनों विशेषण निरपेक्षभाव निरपेक्षम्।
अथवा अत्यन्त क्रूरता के सूचक हैं।
५०. पलिछिदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहि । सं०-परिच्छिद्य बाह्यकं च स्रोतः निष्कर्मदर्शी इह मर्येषु । । इन्द्रियों की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर इस मरणधर्मा जगत् में तुम निष्कर्मदर्शी बनो।
भाष्यम् ५०-स्रोतो द्विविधम्-बाह्यमाभ्यन्तरं च। स्रोत दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य स्रोत तत्र बाह्यम् - इन्द्रियाणि, आभ्यन्तरम्-रागादि । बाह्य- है--इन्द्रियां और आभ्यन्तर स्रोत है-राग आदि । बाह्य स्रोत की स्रोतस उच्छ खलता एव आभ्यन्तरस्रोतसोऽभिवृद्धये उच्छखलता ही आभ्यन्तर स्रोत की अभिवृद्धि करती है। इसीलिए भवति । तेनोक्तम् -बाह्यस्रोतः परिच्छिद्य मनुष्य इह कहा है बाह्य स्रोत को रोक कर अर्थात् इन्द्रियों की बहिर्मुखी
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