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आमुखम् अधीयमानेऽस्मिन्नध्ययने इदं सूक्तं सार्थकं भवति'वेदान्यशास्त्रवित् क्लेशं, रसमध्यात्मशास्त्रविद् । भाग्यभृद् भोगमाप्नोति, वहति चन्दनं खरः ॥'
पूज्यपादस्य एषा श्लोकद्वयो चापि अत्र सुसंगता''यत् परः प्रतिपाद्योऽहं यत् परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥' 'यदप्राह्य न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सवं तत् स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥'
इस अध्ययन को पढ़ने पर यह सूक्त सार्थक प्रतीत होता है--
'जो व्यक्ति अन्यान्य शास्त्रों का ज्ञाता है, वह केवल क्लेश को भोगता है। जो अध्यात्म शास्त्र का ज्ञाता है, वही शास्त्र के रस को भोगता है । गधा चन्दन के भार को ढोता है, पर उसकी सुगंध का उपभोग कोई भाग्यशाली ही कर पाता है।
पूज्यपाद द्वारा रचित ये दो श्लोक भी यहां सुसंगत हैं
'दूसरे मेरा प्रतिपादन करते हैं, मैं दूसरों का प्रतिपादन करता हूं। यह मेरी उन्मत्त चेष्टा है। क्योंकि मैं (आत्मा) निर्विकल्प हूं।'
'जो राग-द्वेष आदि अग्राह्य हैं, हेय हैं, उन्हें ग्रहण नहीं करता और जो स्वभाव है उसे नहीं छोड़ता तथा जो सर्वथा सब कुछ जानता है, वह स्वसंवेद्य मैं हूं।'
१. समाधिशतक, श्लोक १९-२० ।
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