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अ० ४. सम्यक्त्व, उ० ४. सूत्र ५१-५२ कर्मपदं द्वयर्थक विद्यते--
कर्म शब्द के दो अर्थ हैं१. मनोवाक्कायानां प्रवृत्तिः कर्म ।
१. मन, वचन और काया की प्रवृत्ति है कर्म । २. प्रवृत्त्या आकृष्टाः शुभाशुभहेतुभूताः पुद्गलाः २. प्रवृत्ति से आकृष्ट शुभ-अशुभ के हेतुभूत पुद्गल हैं कर्म ।
कर्म। कर्मविषये तिस्रो धारणा उदभवन्ति
कर्म विषयक तीन धारणाएं उत्पन्न होती हैं१. आसक्तिकृतकर्मपरित्यागः ।
१. आसक्तिपूर्वक किए जाने वाले कर्मों का परित्याग । २. कर्मफलत्यागः।
२. कर्म-फल का त्याग । ३. कर्मपरित्यागः।
३. कर्म मात्र का परित्याग । अस्मिन् विषये प्रस्तुतागमस्य हृदयमिदं-आसक्त्या इस विषय में प्रस्तुत आगम का हार्द यह है-आसक्तिकर्म न करणीयम् । कर्मणः फलाशंसा न कर्त्तव्या । कर्म- पूर्वक कर्म नहीं करना चाहिए। कर्म-फल की आकांक्षा नहीं करनी परित्यागः कार्यः । एष एव कर्मणो निर्याणं नैष्कर्म्य वा। चाहिए । कर्म का परित्याग करना चाहिए। यही कर्म से विरमण है नास्य तात्पर्यम्-सर्वथा कर्म न करणीयं, किन्तु कर्मणां अथवा यही नैष्कर्म्य है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कर्म सर्वथा निरोधः कार्यः, स च संवरः समाधिरित्युच्यते, अथवा अकरणीय है, किन्तु कर्म का निरोध करना चाहिए। उसे संवर या यदावश्यक कर्म करणीयं तत्समतया करणीयं, येन कर्मणां समाधि कहा जाता है। अथवा जो आवश्यक कर्म करणीय है उसे सफलत्वं बन्धनं वा प्रतनुतां गच्छेत् । यानि कर्माणि समतापूर्वक करना चाहिए, जिससे कि कर्मों का फल और बंधन कृश मन्दफलानि भवन्ति तान्याप निष्कमेसज्ञा लभन्ते ।' हो जाए। जो कर्म मन्दफल वाले होते हैं उन्हें भी निष्कर्म कह दिया
जाता है।
५२. जे खलु भो! वीरा समिता सहिता सदा जया संघडदंसिणो आतोवरया अहा-तहा लोगमुवेहमाणा, पाईणं पडोणं दाहिणं उदीणं इति सच्चंसि परिचिदिसु, साहिस्सामो णाणं वीराणं समिताणं सहिताणं सदा जयाणं संघडदंसिणं आतोवरयाणं अहा-तहा लोगमुवेहमाणाणं । सं०-ये खलु भोः ! वीराः समिता: सहिताः सदा यताः संघडशिनः आत्मोपरताः यथातथा लोकमुपेक्षमाणाः प्राचीन प्रतीचीनं दक्षिणं उदीचीनं इति सत्ये परितस्थुः, कथयिष्यामः' ज्ञानं वीराणां समितानां सहितानां सदा यतानां संघडदशिनां आत्मोपरतानां यथातथा लोकमुपेक्षमाणानाम् । हे आर्यो ! जो मुनि वीर, सम्यक-प्रवृत्त, सहिष्ण, सतत इन्द्रिय-जयी, प्रतिपल जागरूक, स्वतः उपरत, जो लोक जैसा है उसे वैसा ही देखने वाले, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर-सभी दिशाओं में सत्य में स्थित हुए हैं, उन पूर्व-विशेषणों से विशेषित मुनियों के सम्यग् ज्ञान का हम निरूपण करेंगे।
भाष्यम् ५२ - उक्तं सम्यक्त्वम् । इदानीं तत्फल- सम्यक्त्व का प्रतिपादन किया जा चुका है। अब उसके फल मुच्यते । 'भो' इति आमन्त्रणे। ये खलु वीरा:-तपसि का प्रतिपादन कर रहे हैं। 'भो' संबोधनवाची है। जो वीर हैं अर्थात् कृतपराक्रमाः, समिताः- सम्यक्प्रवृत्ताः, सहिताः-- तपस्या में पराक्रमशील हैं, समित हैं -सम्यक् प्रवृत्त हैं, सहित हैंसहिष्णवः, सदा यता:- सर्वकालं संयतवृत्तयः, सहनशील हैं, जो सदा यत हैं—सर्व काल में संयतवृत्ति वाले हैं, संघडशिन: ----नित्यकालोपयुक्ताः , सततजागरूका इति संघडदर्शी-जो प्रतिक्षण (संयम में) उपयुक्त हैं, सतत जागरूक हैं, यावत, आत्मोपरता: --आत्मना स्वत एव पापकर्मभ्यो आत्मोपरत हैं - स्वतः पापकर्मों से विरत हैं, न कि दूसरों के प्रशासन विरता न तू पराभियोगेन, यथावस्थितोऽयं कर्मलोकः या आज्ञा से विरत हैं, यह कर्म लोक अथवा भवलोक जैसा अवस्थित है भवलोको वा तथा तमुपेक्षमाणाः सर्वासु दिक्षु ये सत्ये उसे वैसा ही देखने वाले हैं तथा सभी दिशाओं में जो सत्य में १. योगवाशिष्ठ, ६-१-८७-१८ :
-निरंतरं, नित्यकालोवउत्ता, पुथ्वावरवित्थरदसणा वा वासनामात्रसारत्वात्, अज्ञस्य सफलाः क्रियाः ।
संथडदं सिणो। सर्वा एवाफला शस्य, वासनामात्रसंक्षयात् ॥
४. आचारांग चूणि, पृष्ठ १५३ : अप्पणा उवरता पावकम्मेहि २. प्राकृत व्याकरण (हेमचन्द्र) ४१२, कथेवज्जर-पज्जरोप्पाल
आतोवरता, जंभणितं न पराभियोगेणं ण वा इस्सरपुरिसपिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः ।
वसा। ३. आचारांग चणि, पृष्ठ १५३ : संथवं णाम संथ जं भणितं
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