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अ० ४. सम्यक्त्व, उ० ३. सूत्र २७-३२ हिंसायां प्रवर्तन्ते । अत एव भगवता महावीरेण एतत् हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर ने इस रहस्य का रहस्यमुद्घाटितं यावद् मनुष्यो मृतार्थो न भवति उद्घाटन किया कि जब तक मनुष्य मृतार्च नहीं होता, तब तक यथार्थ तावद् वस्तुतः धर्मविद् न भवति। धर्म शृण्वन् पठन्नपि में वह धर्म का ज्ञाता नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि वह धर्म तं नाचरतीति तात्पर्यम् ।
को सुनता हुआ, पढता हुआ भी उसका आचरण नहीं करता। धर्मविद् ऋजूः भवति अथवा यः ऋजुः स धर्मविद् धर्मविद् ऋजु होता है अथवा जो ऋजु होता है वह धर्मविद् भवति इति उभयथापि वक्तुं शक्यम् । उक्तं च होता है-ऐसा दोनों प्रकार से कहा जा सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययने-'सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ।' में कहा है-'जो ऋजु होता है उसकी विशुद्धि होती है। धर्म शुद्ध
व्यक्ति में ही अवस्थित होता है।' २६. आरंभजं दुक्खमिणति णच्चा, एवमाहु समत्तवंसियो। सं०-आरम्भज दुःखमिदं इति ज्ञात्वा एवमाहुः समत्वदर्शिनः । दुःख हिंसा से उत्पन्न है-यह जान कर मनुष्य हिंसा का परित्याग करे । समत्वदर्शी प्रवचनकारों ने ऐसा कहा है।
भाष्यम् २९–आरम्भः--हिंसा। यदिदं दुःखमस्ति आरंम का अर्थ है हिंसा। जो यह दुःख है वह हिंसा से तद् आरम्भाज्जातमस्ति इति ज्ञात्वा पुरुष: हिंसातो प्रसूत है, ऐसा जानकर पुरुष हिंसा से निवर्तित हो जाए। समत्वदर्शी निवर्तेत । समत्वदर्शिन:' एवं उक्तवन्तः ।
प्रवचनकारों ने ऐसा कहा है ।
३०. ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरति ।
सं० ते सर्वे प्रावादिकाः दुःखस्य कुशलाः परिज्ञामुदाहरन्ति । वे सब कुशल प्रवचनकार दुःख की परिक्षा का प्रतिपावन करते हैं।
भाष्यम् ३० ते सर्वे कुशलाः प्रावादिकाः दुःखक्षयार्थ वे सभी कुशल प्रवचनकार दुःखमुक्ति के लिए परिज्ञा-विवेक परिज्ञाम्-विवेक उदाहरन्ति । हिंसायाः प्रत्याख्यानं का प्रतिपादन करते हैं। हिंसा का प्रत्याख्यान किए बिना कोई अकृत्वा न कश्चिद् दुःखक्षयं कर्तुं प्रत्यलो भवति इति भी पुरुष दुःख को नष्ट करने में समर्थ नहीं होता, यही इसका तात्पर्यम् ।
तात्पर्य है। ३१. इति कम्म परिण्णाय सव्वसो । सं०- इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः । इसलिए मुमुक्ष पुरुष कर्म को सब प्रकार से जान कर उसका परित्याग करे।
भाष्यम् ३१--सर्वकर्मक्षयो मोक्षः । बन्धे अपरिज्ञाते समस्त कर्मों का क्षय ही मोक्ष है। बन्ध को जाने बिना मोक्ष नहि मोक्षः परिज्ञातो भवति इति सर्वशः कर्म परिज्ञाय परिज्ञात नहीं होता, इसलिए कर्म को सब प्रकार से जान कर उसको तत्क्षयार्थं प्रयतनीयम् । दुःखस्य हेतुर्कर्म, तस्य क्षयाय क्षीण करने का प्रयत्न करना चाहिए । दुःख का हेतु है कर्म। दुःख कर्मविवेकः करणीयः इति हृदयम् ।
का क्षय करने के लिए कर्म-विवेक-यह दुःख किस कर्म का फलित है, ऐसा विवेक करना चाहिए, यही इसका हार्द है ।
३२. इह आणाकंखी पंडिए अणिहे एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं । सं०-इह आज्ञाकांक्षी पण्डित: अनिहतः एकमात्मानं संप्रेक्ष्य धुनीयाच्छरीरं, कर्शयेद् आत्मानं जरयेद् आत्मानम् । जिनशासन में आज्ञाप्रिय पण्डित एक आत्मा की संप्रेक्षा करता हुआ कषाय आदि से प्रताड़ित न हो। वह कर्म-शरीर को
प्रकम्पित करे और कषाय-आत्मा को कृश करे, जीर्ण करे। १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ १४५ : सम्मत्तं पस्सतीति
दशिनः समस्तशिनो का। सम्मदंसी।
२. कृशच तन करणे इति धातुः । अत्र स्वार्थिकनिन् । (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र १७१ : समत्वदर्शिनः सम्यक्त्व
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