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अ० ४. सम्यक्त्व, उ० २. सूत्र १३-१६
बाध्यम् १४ - हिंसा च कर्मबन्धस्थानं, अहिंसा च निर्जरास्थानम्' इति ज्ञानिनः सकाशाद् अभिसमेत्य आर्त्ता अपि अहिंसां प्रतिपद्यन्ते' प्रमत्ता अपि च, किं पुनः अपरे विषयेभ्योऽनासक्तिमुपगता: ?
भत्तों द्विविधः प्रन्यासः - अभावग्रस्तः रोगाद्यभिभूतो दुःखितो वा । भावातः - हिंसात्मकैभव : पीडितः । प्रमत्तः विषयमद्यादिप्रमादाभिभूतः सुखितो वा ।
१५. अहासमि ति बेमि
सं० - यथासत्यमिदं इति ब्रवीमि ।
यह वास्तविक सत्य है - ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् १४ इयं सत्यमस्ति मनुष्या आर्ता अपि सन्ति, प्रमत्ता अपि सन्ति । इदमपि सत्यं केचित् आर्त्ताः सन्तोऽपि अतिप्रहाणाय समुद्यताः भवन्ति । केचिच्च प्रमत्ताः सन्तोऽपि किञ्चिन्निमित्तमासाद्य जागरूकदशां प्रतिपद्यन्ते । इदं भावपरिवर्तनं यथासत्यं --- यथार्थमस्तीति सूत्रस्य तात्पर्यम् ।
१६ - इदानीं संबोधेरालम्बनानि व्याख्यायन्ते मृत्युमुखस्य न अनागमोऽस्ति तत् कुतोपि विस्फारितं भूत्वा प्राणिनं बसते अथवा मृत्युमुखस्य नानादिक्षु आगमोस्ति । मरणधर्माण: सर्वे जीवाः, नास्ति कोपि
१६. नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि, इच्छापणीया वंकाणिकेया । कालग्गहीआ णिचए णिविट्ठा, पुढो-पुढो जाई पकप्पयंति ।
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१. ( क ) इस सूत्र का चूर्णि के आधार पर वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है- जो धर्म को स्वीकार नहीं करते, वे आतं होते हैं या प्रमत । आचारांग चूर्णि पृष्ठ १३९ 'पडिवज्जंतिति वक्क सेसं अहवा तं एवं अवखातं धम्मं अपविजमाणा महा राग दोसेहि पमत्ता विसाएहि अण्णउत्थिय गिहत्था पासत्यावओ मा संसारमेव विसंति ।
अथवा ऐसा अनुवाद भी हो सकता है- आतं
२१५ 'हिंसा कर्म - बन्ध का कारण है और अहिंसा निर्जरा का कारण है - ज्ञानी पुरुषों से यह सम्यग् रूप से जान कर आर्त्त व्यक्ति भी अहिंसा को स्वीकार कर लेते हैं और प्रमत्त व्यक्ति भी । जो पुरुष विषयों के प्रति अनासक्त हो चुके हैं, उनकी तो बात ही क्या ?
सं० नानागमो मृत्युमुखस्य अस्ति, इच्छाप्रणीताः वक्रनिकेताः, गृहीतकालाः निचये निविष्टाः, पृथक् पृथक् जाति प्रकल्पयन्ति ।
मौत का मुंह नाना मार्गों से दिख जाता है। फिर भी कुछ लोग धर्माराधना के लिए काल प्रतिबद्ध होकर अर्थ-संग्रह में जुटे रहते हैं। धारण करते हैं ।
इच्छा द्वारा संचालित और माया के निकेतन बने रहते हैं । वे इस प्रकार के लोग नाना प्रकार की जीव-योनियों में जन्म
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आ दो प्रकार के होते हैं
१. द्रव्य आत जो अभावग्रस्त हैं, रोग आदि से अभिभूत हैं। अथवा दुःखी हैं ।
२. भाव आजो हिसात्मक भावों से पीड़ित हैं। प्रमत्त का अर्थ है वह पुरुष जो विषय, मद्य आदि प्रमादों से अभिभूत है अथवा जो सुखार्थी है ।
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यह सत्य है कि मनुष्य आर्स भी होते हैं और प्रमत्त भी होते हैं। यह भी सत्य है कि कुछ मनुष्य आर्त्त होते हुए भी अति को क्षीण करने के लिए समुद्यत होते हैं, संयम ग्रहण के प्रति तत्पर होते हैं और कुछ मनुष्य प्रमत्त होते हुए भी किसी निमित्त को पाकर जानरूक बन जाते हैं। यह भाव परिवर्तन यथार्थ है, यही इस सूत्र का तात्पर्य है ।
प्रस्तुत आलापक में संबोधि के आलंबन-सूत्र व्याख्यात हैं । पहला आलंबन - सूत्र हैमौत के लिए कोई भी मार्गों से दिख जाता है। मौत
अनागम नहीं है मौत का मुंह नाना किसी भी मार्ग से प्रकट होकर प्राणी मनुष्य भी धर्म को स्वीकार नहीं करते और प्रमत्तविलासी मनुष्य भी ।
(ख) तुलना-गीता ७।१६ :
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विधाते जनाः सिनोऽर्जुन । आरियों ज्ञानी च भरतर्षभ | m
२. 'नाणागमो' पदं 'नानागमो', न अनागमो' – इति द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां व्याख्यातुं शक्यः । 'नाणागमो' मृत्युमुखस्य, वृत्तौ अनागमो मृत्योर्मखत्य इति ।
चूणों (पृष्ठ १४०) (१ ( पत्र १६६ ) न हि
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