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अ० ४. सम्यक्त्व, उ० १ २. सूत्र १०-१२
१२. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्तवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा - एए पए संबुज्झमाणे, लोयं च आणाए अभिसमेच्या पुढो पवेइयं ।
सं० – ये आस्रवाः ते परिस्रवाः, ये परिस्रवाः ते आस्रवाः, ये अनास्रवाः ते अपरिस्रवाः, ये अपरिस्रवाः ते अनास्रवाः - एतानि
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पदानि संयुध्यमानः, लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य पृथक् प्रवेदितम् ।
जो आव हैं, वे ही परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं, वे ही आलब हैं। जो अनालव हैं, वे ही अपरिस्रव हैं। जो अपरिस्रव हैं, वे ही अनालव हैं। इन पदों (मंगों) को समझने वाला विस्तार से प्रतिपादित जीव-लोक को आज्ञा से जान कर आत्रव न करे ।
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भाष्यम् १२ – कर्माकर्षण हेतुरात्माध्यवसायः आलयः । कर्मनिर्जरणहेतुरात्माध्यवसायः परिश्रयः । तद्विपरीतः अपरिवः । आस्रवः कर्मबन्धस्थानम् । परिस्रवः कर्म निर्जरास्थानम् ।
आस्रवक: आस्रवः परिस्रवकः परिस्रवः इति व्युत्पत्ती' आस्रवः - कर्माकर्षक:, परिस्रवः - कर्मनिर्जरकः । अत्र चतुर्भङ्गी भवति -
१. वे आसवा ते परिस्रवाः ।
ये परिस्रवाः ते आस्रवाः ।
बोओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
२. ये आखवा ते अपरिस्रवाः ।
ये अपरिस्रवाः ते आखवाः ।
३. ये अनास्रवाः ते परिस्रवाः ।
ये परिस्रवाः ते अनास्रवाः ।
४. ये अनास्रवाः ते अपरिस्रवाः ।
ये अपरिस्रवाः ते अनास्रवाः ।
सूत्रे प्रथमचतुर्थश्च शेषभङ्गी गयौ ।
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साक्षादर्शितः ।
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कर्म को आकृष्ट करने का हेतुभूत आत्मा का अध्यवसाय आलव कहलाता है। कर्म-निर्जरण का हेतुभूत आत्मा का अध्यवसाय परिस्रव कहलाता है। परिसर का प्रतिपक्षी है अपरिव आस्रव कर्मबन्ध का कारण है और परिस्रव कर्म - निर्जरा का हेतु है ।
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जो आस्रवक है वह आस्रव है। जो परिस्रवक है, वह परिस्रव है । इस व्युत्पत्ति के आधार पर आस्रव का अर्थ है-कर्म को आकृष्ट करने वाला और परिस्रव का अर्थ है— कर्म का निर्जरण करने वाला । उसकी चतुभंगी इस प्रकार होती है
१. जो आस्रव हैं कर्म का बन्ध करते हैं,
वे ही परिलय हैं— कर्म का मोक्ष करते हैं। जो परिस्रव हैं - कर्म का मोक्ष करते हैं,
वे ही आस्रव हैं— कर्म का बन्ध करते हैं । २. जो आस्रव हैं कर्म का बन्ध करते हैं,
वे ही अपरिस्रव हैं - कर्म का मोक्ष नहीं करते ।
जो अपरिस्रव हैं वे ही आस्रव हैं
कर्म का मोक्ष नहीं करते, कर्म का बन्ध करते हैं ।
भङ्गः
कर्मणां बन्धो भवतीति तथ्यं बद्धानि कर्माणि सावधिकानि भवन्ति, अतस्तेषां निर्जरा जायते इत्यपि तथ्यम् । यत्र न कर्मबन्धस्तत्र न निर्जरा इति स्वाभाविकम्
१. आचारांग वृत्ति, पत्र १६५ : यदि वा आस्रवन्तीत्यात्रवाः, पचाद्यच् एवं परिस्रवन्तीति परिश्रवाः ।
३. जो अनास्रव हैं
कर्म का बन्ध नहीं करते,
वे ही परिस्रव हैं-कर्म का मोक्ष करते हैं ।
जो परिस्रव हैं - कर्म का मोक्ष करते हैं,
वे ही अनास्रव हैं
कर्म का बन्ध नहीं करते । कर्म का बंध नहीं करते,
४. जो अनास्रव हैं
वे ही अपरिस्रव हैं- कर्म का मोक्ष नहीं करते ।
कर्म का मोक्ष नहीं करते,
जो अपरिस्रव हैं वे ही अनास्रव हैं कर्म का बन्ध नहीं करते । प्रस्तुत आलापक में पहला और चौथा विकल्प साक्षात् प्रतिपादित है, शेष दो विकल्प स्वयंगम्य हैं ।
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कर्म का बंध होता है, यह सच है। बंधे हुए कर्म सावधिक होते हैं इसलिए उनका निर्जरण होता है, यह भी सच है। जहां कर्म-बन्ध नहीं है, वहां निर्जरा भी नहीं है, यह स्वाभाविक है।
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