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आचारांगभाष्यम ५. तं आइइत्तु ण णिहे ण णिक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा।
सं०-तद् आदाय न निदध्यात, न निक्षिपेत्, ज्ञात्वा धर्म यथा तथा । पुरुष उस अहिंसा व्रत को स्वीकार कर उसमें छलना न करे और न उसे छोड़े । धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जान कर आजीवन उसका पालन करे।
भाष्यम् ५-तद् अहिसाव्रतं रोचककारकसम्यग्दर्शनं पुरुष उस अहिंसा व्रत अथवा रोचक और कारक सम्यग्दर्शन वा आदाय तन्न निदध्यात्-छादयेत् तथा न निक्षिपेत् । को स्वीकार कर उसमें छलना न करे और न उसे छोड़े । जैसेयथा --केचिद् भिक्षुव्रतानि गृहीत्वा उत्प्रव्रजन्ति तथा न कुछ भिक्षु भिक्ष-व्रतों को स्वीकार कर उत्प्रव्रजन करते हैं --भिक्षुकुर्यात्, किन्तु तद् यावज्जीवमनुपालयेत् । अस्य कारणं, दीक्षा को त्याग देते हैं, वैसा न करे, किन्तु भिक्षु-व्रतों का यावज्जीवन यथा धर्मस्य स्वरूपमस्ति तथा तस्य परिज्ञानं करणीयम्। पालन करे। इसका कारण है, धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा उसको तेन निक्षेपणस्य कथापि व्यथां जनयति । हृदयंगतायां जानना चाहिए, जिससे कि उसको छोड़ने का प्रश्न ही न उठे । भिक्षुमनीषायां कि कोपि स्थितात्मा तां त्यक्तं इच्छेत ? स व्रत की मनीषा हृदयंगम हो जाने पर क्या कोई स्थितात्मा पुरुष एव इच्छेत् योस्ति अस्थितात्मा। तस्य निक्षेपणं न उसको छोड़ना चाहेगा? वही छोड़ना चाहेगा जो अस्थितात्मा है। स्यात् किन्तु ततश्च्युतिरेव भवेत् । यथोक्तं दशवकालिके प्रव्रज्या का निक्षेपण नहीं होना चाहिए किन्तु उसमें रहते प्राणों का 'चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं ।"
विसर्जन ही होना चाहिए। दशवकालिक में कहा है-भिक्षु शरीर
को त्याग दे किन्तु धर्म-शासन को न छोड़े।' निहन्यते इति निहः। तद् अहिंसाव्रतं आदाय निह का अर्थ है-हनन करने वाला । साधक उस अहिंसा व्रत परीपहै: उपमगैः वा न निहो भवेत् इत्यपि व्याख्यातुं को स्वीकार कर परिषह और उपसर्गों के द्वारा व्रत का हनन करने शक्यम् ।
वाला न हो—यह व्याख्या भी की जा सकती है। ६. दिठेहि णिवेयं गच्छेज्जा। सं०-दृष्टेषु निर्वेदं गच्छेत् । वह विषयों के प्रति विरक्त रहे ।
___ भाष्यम् ६-अहिंसाया अनुपालने या या बाधा अहिंसा व्रत की अनुपालना में जो जो बाधाएं हैं, जब तक वर्तन्ते तासां यावन्न परिहार: तावत् न तस्या अनुपालन उनका परिहार नहीं होता, तब तक उसका अनुपालन संभव नहीं है । संभवति । तत्र प्रथमा बाधास्ति दृष्टानि । दृष्टम्- उसमें प्रथम बाधा है--दृष्ट । दृष्ट का अर्थ है शब्द, रूप, गंध, इन्द्रियविषयः शब्दरूपगन्धरसस्पर्शात्मकः। दृष्टासक्तः रस, स्पर्शात्मक इन्द्रिय-विषय । जो व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों में आसक्त अहिंसायाः पालनं कर्तुं न प्रभवति । अत एव निर्देशोऽयम् है, वह अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। इसीलिए यह निर्देश -अहिंसाया आराधकः दृष्टेषु निर्वेदं गच्छेत्, तेषां है-अहिंसा का आराधक इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्त रहे । उनका वेदनं—आस्वादनं न कुर्यात् ।
वेदन-आस्वादन न करे। ७. णो लोगस्सेसणं चरे।
सं०-नो लोकस्यैषणां चरेत् । वह लोकेषणा न करे।
भाष्यम् ७-अहिंसाया अनुपालने द्वितीया अहिंसा व्रत की अनुपालना में दूसरी बाधा है --- लोकषणा । बाधास्ति लोकैषणा। लोक्यते इति लोकः-इन्द्रिय- जो देखा जाता है वह है लोक । लोक का तात्पर्यार्थ है इन्द्रियविषयः, तस्य एषणां न चरेत् । अस्य वैकल्पिकोर्थः- विषय । साधक उसकी एषणा न करे। इस आलापक का वैकल्पिक इन्द्रियविषयान् एषति सर्वोपि लोकः तत्किमहं तेषामे- अर्थ यह है --- 'सभी प्राणी इन्द्रिय-विषयों की एषणा करते हैं तो फिर षणं न कुर्याम्, इति चिन्तनं लोकैषणा । अहिंसाया मैं उनकी एषणा क्यों न करूं'--ऐसा सोचना लोकषणा है। अहिंसा १. दसवे आलियं, चूलिका ११७ ।
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