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आचारांग माध्यम
५४. अवरेण पुण्यं ण सरंति एगे, किमस्सतीतं ? कि वागमिस्सं? भासति एगे इह माणवा उ, जमस्तीतं आगमिस्सं ।
सं० – अपरेण पूर्व न स्मरन्ति एके, किमस्यातीतं ? कि वा आगमिष्यत् ? भाषन्ते एके इह मानवाः तु यदस्यातीत आगमिष्यत् । कुछ पुरुष भविष्य और अतीत की चिंता नहीं करते- -इसका अतीत क्या था ? इसका भविष्य क्या होगा ? कुछ मनुष्य कहते हैं- जो इसका अतीत था, वही इसका भविष्य होगा ।
माध्यम ५९ केचित् साधका अपरेण अनागतेन पूर्वम् - अतीतं न स्मरन्ति । अस्य रागद्वेषाभिभूतस्य चित्तस्य किमतीतमासीत् ? कि या अनागतं भविष्यति ? इति संबंधयोजनां न कुर्वन्ति ।
केचिन्मानवाः इति भाषन्ते यदस्य अतीतमासीत् तदेव अनागतं भविष्यति ।
भाष्यम् ६० - तथागताः
च
न अतीतमर्थं न अनागतमर्थ नियच्छन्ति विधूतकल्पों महर्षिः एतनु दर्शी भवति, तेन स कर्मशरीरं निश्शोष्य तस्य क्षपको भवति ।
६०. जातीतम ण य आगमिस्सं अद्धं नियच्छति तहागया उ विद्युत कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्मोसत्ता खगे महेसी । सं० नातीतमचं न च आगमिष्यत् अर्थ पश्यन्ति' तथागताः तु विधूतकल्पः एतदनुदर्शी निश्शोष्य अपक महर्षिः । तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। धुताचार की साधना करने वाला महर्षि वर्तमानदर्शी होता है। वह का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
कर्मशरीर
चित्तपर्यायाः कर्म संस्काराश्च त्रैकालिका भवन्ति । तत्र अतीतपर्यायः किं भविष्यपर्यायस्य नियमनं करोति अथवा भविष्यपर्यायः अतीतपर्यायात् सर्वथा स्वतन्त्रो भवति ? अस्मिन् विषये अभिमतमेकमस्ति यदनागत मस्ति अतीतनियमितम् । अस्मिन्नभिमते अतीते रागात्मकं चित्तं अनागतेपि रागात्मकं भविष्यति किन्तु तेषामभिमते परिणतेः नेतन्मन्यन्ते । याद अनागतं अतीतानुरूपमेव न भवति किन्तु ततो विलक्षणमपि भवति । अत एव विधूतकल्पस्य प्रयोजनम । यदि अनागतं सर्वथा अतीतपरतंत्र स्यात्तदा पूर्व संस्कारक्षपणस्य न कोप्युपायः संभवेत् 13
तथागता
१. प्राकृत व्याकरण (हेमचन्द्र ), ४।१८१ :
दृशो निअच्छा पेच्छावयच्छावयज्झ वज्ज सव्वव-देवखोअसोज-पुनम नियआस-पासा:
२. द्रष्टव्यम् - आयारो ६।२४ ।
३. सूत्र ५९-६० की व्याख्या दार्शनिक और साधना- दोनों नयों से की गई है । दार्शनिक नय से व्याख्या इस प्रकार
कुछ साधक भविष्य और अतीत की चिन्ता नहीं करते । वे यह नहीं सोचते कि राग-द्वेष से अभिभूत इस चित्त का अतीत क्या थ अथवा इसका भविष्य क्या होगा ? इस प्रकार की संबंध योजना नहीं करते ।
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कुछ पुरुष यह कहते हैं-जो इसका अतीत था, वही इसका भविष्य होगा ।
तथागत न अतीत के अर्थ को देखते हैं और न अनागत के अर्थ को विधूतकल्प- धुताचार की साधना करने वाला महर्षि वर्तमानद होता है. इसलिए वह कर्मशरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है ।
चित्त-पर्याय और कर्म संस्कार त्रैकालिक होते हैं। क्या अतीत का पर्याय भविष्य के पर्याय का नियमन करता है अथवा भविष्य का पर्याय अतीत के पर्याय से सर्वथा स्वतंत्र होता है ? इस विषय में एक अभिमत यह है कि अनागत अतीत से नियंत्रित है। इस अभिमत के अनुसार अतीत में यदि वित्त रागात्मक है तो वह अनागत में भी रागात्मक होगा। किन्तु तथागत यह नहीं मानते। उनके अभिमत में परिणति की विचित्रता के कारण अनागत अतीत के अनुरूप ही नहीं होता, किन्तु उससे विलक्षण भी होता है। इसीलिए विधूतकल्प साधना की प्रयोजनीयता है। यदि अनावत अतीस से सर्वथा परतंत्र होता तो पूर्व-संस्कारों की क्षमता का कोई भी उपाय संभव नहीं हो पाता।
कुछ दार्शनिक भविष्य के साथ अतीत की स्मृति नहीं करते । वे अतीत और भविष्य में कार्यकारणभाव नहीं मानते कि जीव का अतीत क्या था और भविष्य क्या होगा ?
कुछ दार्शनिक कहते हैं- इस जीव का जो अतीत था, वही भविष्य होगा।
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