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अप्रमत्तो भव । बाह्यमित्रान्वेषणायां मा समयं यापय । की खोज में अपने समय को मत गवां ।
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६३. जं जाणेज्जा उच्चालइयं तं जाणेज्जा दूरालइयं । जं जाणेज्जा दूरालइयं तं जाणेज्जा उच्चालइयं । सं० वं जानीयाद् उच्चाधिकं तं जानीयाद्दूरालयिकम्। यं जानीयाद् दुरालयिकं तं जानीयाद् उन्चाविकम् । जिसे तुम परम तत्व के प्रति लगा हुआ जानते हो, उसे कामनाओं से दूर हुआ जानो । जिसे तुम कामनाओं से दूर हुआ जानते हो, उसे परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानो ।
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भाष्यम् ६३ – यः उच्चे - परमतत्त्वे लीनो भवति तथा मित्रामित्रविशेषाद् ऊर्ध्वं तिष्ठति स उच्चालये विहरतीति उच्चापि तादृशः कामनात अनुकूल प्रतिकूलसंवेदनाच्य दूरं तिष्ठति तेन स राधिको भण्यते । उच्चालयिकत्वं दूरालयिकत्वस्य सूचकमस्ति । दूराविकत्वमपि सूचयति उच्चालयिकत्वम् । ६४. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिन्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । सं० पुरुष ! आत्मानमेव अभिनिगृह्य एवं दुःखात् प्रमोक्ष्यसि
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पुरुष ! आत्मा का ही निग्रह कर। इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जाएगा ।
भाष्यम् ६४ - आत्मा - चित्तम् । हे पुरुष ! त्वं अनुकूल संवेदने रज्यमानं प्रतिकूलसंवेदने च द्विष्यमाणमात्मानं अभिनिगृह्य तिष्ठ एवं त्वं दुःखाद् मुक्तो भविष्यसि । दुःखं अनुकूल प्रतिकूलसंवेदनाभ्यामुत्पद्यते यः संवेदनस्याभिनिग्रहणं करोति तस्य सहजमेव दुःख प्रमोक्षो जायते ।'
६५. पुरिसा ! सचमेव समभिजानाहि ।
सं० - पुरुष ! सत्यमेव समभिजानीहि ।
पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर
भाष्यम् ६५ – आत्मनिग्रहः किमुपायः इति जिज्ञासां समाधातुं सूत्रकारो निर्दिशति - हे पुरुष ! त्वं सत्यमेव समभिजानीहि । सत्यम् – वस्तुनो यथार्थस्वरूपम् ।
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१.) आचारांग पूर्ण पृष्ठ १२४ विसए उच्चारिते। उचालवितारम् -
(ख) आचारांग वृति पत्र १५३
अपनेतारम् ।
२. आचारांग चूर्णि पृष्ठ १२४ : दुक्खं ३. आत्मा शब्द का प्रयोग चैतन्य-पिण्ड, अर्थ में होता है। अभिनय का अर्थ है- समीप जाकर पकड़ना । जो व्यक्ति मन के समीप जाकर उसे पकड़ लेता है, उसे जान लेता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। निकटता से जान लेना ही वास्तव में पकड़ना है । नियंत्रण करने से प्रतिक्रिया पैदा होती है। उससे निग्रह नहीं होता । धर्म के क्षेत्र में यथार्थ को जान लेना ही निग्रह है।
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कम्मं ।
मन और शरीर के
जो उच्च - परम तत्व में लीन होता है तथा मित्र और अमित्र की मान्यता से ऊपर उठ जाता है, वह उन्नालय में विहरण करने वाला उच्चाधिक होता है। पैसा साधक कामनाओं तथा अनुकूल और प्रतिकूल संवेदनाओं से दूर रहता है, इसलिए वह वरालयिक कहलाता है। उच्चालयिक दुरालयिक का सूचक है । राजविक भी उच्चातपिक का सूचक है।
आचारांग भाष्यम
आत्मा का अर्थ है चित्त । हे पुरुष ! तू अनुकूल संवेदनों में अनुरक्त हो जाने वाले और प्रतिकूल संवेदनों में द्वेष करने वाले चिरा का निग्रह करके रह इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जाएगा। दुःख उत्पन्न होता है अनुकूल और प्रतिकूल संवेदनों से जो संवेदनों का निग्रह कर लेता है, उसके सहज ही दुःख-मुक्ति हो जाती है ।
आत्म-निग्रह का उपाय क्या है ? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिए सूत्रकार कहते हैं - हे पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर । सत्य का अर्थ है - वस्तु का यथार्थ स्वरूप । जब त
४. (क) आचारांग चूमि, कुठ १२४ सोनाम संजमो सत्तरसविहो तं समभियाणहि, जं भणितं तं समायर, अया सच्चे साणिवि क्याणि पासिज्वंति कहं ? जो आयरिया पंच महत्ययाई, आरभित्ता नागपाले सो परियालोवेन सच्चो भवति । (ख) आचारांग वृति पत्र १५३ सदस्य हितः सत्य:-- संयमस्तमेवापरण्यापार निरपेक्षः समभिजानीहिआसेवनापरिज्ञया समनुतिष्ठ यदिवा सत्यमेव समभिजानीहि गुस्सासिगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहको भव । (ग) प्रष्टव्यम् ३२४० माध्यम् ।
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