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आमुखम्
प्रस्तुताध्ययने 'सम्ये पाणा व हंतब्बा' एतस्य प्राधान्यं नास्ति, किन्तु 'सध्ये पाणा ण हंतब्बा' - एतत् तथ्यं सद्भूतमिति यावत् एतत् तथा सम्यग्दर्शनमिति यावत्, तात्पर्यार्थे सम्यगाचारः सम्यग्दर्शनपूर्वक एव भवति ।'
अस्मिन्नध्ययने हिंसायाः समर्थनकारिणां मतमस्ति उल्लिखितम्, तत्प्रतिपक्षे अहिंसायाः सिद्धान्तस्य आर्यवचनत्वमपि उपस्थापितमस्ति । प्रकम्पनस्य सिद्धान्तबीजमपि अस्मिन्नुपलभ्यते । मुनेः प्राचीनतमा साधनापद्धतिस्तस्याः क्रमिक विकासश्च अस्ति सम्यनिर्दिष्टः । एकत्वानुप्रेक्षायाः प्रयोगसंके तोऽपि विद्यते । सत्यान्वेषिणां कृते दिशासूचकमिदं अध्ययनं अहिंसामनुसन्दधानानामपि च ।
१. आचारांग चूर्ण, पृष्ठ १३४, १३५ ।
२. आयारो, ४१३४, ३७ ।
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प्रस्तुत अध्ययन में 'सब्वे पाणा ण हंतम्बा' - 'किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए इस तथ्य के प्रतिपादन की प्रधानता नहीं है, किन्तु किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए - यह तथ्य है, वास्तविक है, यही सम्यग्दर्शन है' - इस प्रतिपादन की प्रधानता है। तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि सम्यग् आचार सम्यग् दर्शन पूर्वक ही होता है ।
इस अध्ययन में हिंसा का समर्थन करने वाले दार्शनिकों का मत उल्लिखित है। साथ ही साथ उसके प्रतिपक्ष में अहिंसा के सिद्धान्त का आर्यवचनत्व भी उपस्थापित किया है। प्रकंपन का सिद्धान्तबीज भी इसमें उपलब्ध है। मुनि की प्राचीनतम साधना पद्धति तथा उसके क्रमिक विकास का सम्यग् निर्देश भी इसमें प्राप्त है । इसमें एकत्व अनुप्रेक्षा के प्रयोग का संकेत भी है। सत्यान्वेषी साधकों के लिए तथा अहिंसा विषयक अनुसंधान करने वालों के लिए भी यह अध्ययन दिशासूचक है।
३. वही, ४।४० ।
४. वही, ४३२ ॥
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