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आमुखम्
प्रस्तुताऽध्ययनस्य नामास्ति सम्यक्त्वम् । केचित प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'सम्यक्त्व' है। कुछ विद्वान् यह प्रतिपादयन्ति, जैनानां साधनापद्धतौ दुःखसहनमेव धर्म प्रतिपादन करते हैं कि जैन-साधना-पद्धति में दुःख सहना ही धर्म इति सम्मतमस्ति, किन्तु एतत् सुप्रतिपादितं नास्ति। माना गया है। किन्तु यह प्रतिपादन समीचीन नहीं है। चूर्णिकार चर्णिकारेण तृतीयाऽध्ययनस्य प्रारम्भे अस्याऽध्ययनस्य ने तीसरे अध्ययन के प्रारंभ में तथा इस अध्ययन के प्रारंभ में भी यह प्रारंभेऽपि च लिखितमिदम्-नैकान्तेन दुःखेन सुखेन वा लिखा है- 'एकान्त दुःख या एकान्त सुख से धर्म नहीं होता। धर्म धर्मो भवति, धमोऽस्ति कषायवमनम् । तस्य प्रधान है-कषायों का वमन । उसका प्रधान कारण है-सम्यक्त्व । कारणमस्ति सम्यक्त्वम्। आचारांगे अस्याध्ययनस्य आचारांग में प्रस्तुत अध्ययन का अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान है। अत्यन्तं गौरवपूर्ण स्थानमस्ति । लिखितं चणिकारेण- चूर्णिकार ने लिखा है-'चतुःशाला के मध्य में रखा हुआ दीपक यथा चतुःशालमध्यगतो दीपस्तत् सर्वमुदद्योतयेत्, एवं उस संपूर्ण चतुःशाला को प्रकाशित कर देता है, वैसे ही आचारांग मध्यगतमध्ययनमिदं सर्वमाचारमवभासयेत् ।'
सूत्र का यह मध्यगत अध्ययन संपूर्ण आचार (आचारांग) को
आलोकित करता है। प्रस्तुताऽध्ययनस्य चत्वार उद्देशकाः सन्ति । तेषा- इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। नियुक्ति में उनके अर्थाधिमर्थाधिकारः निर्युक्तौ एवं निर्दिष्टः समस्ति
कार (विषय) इस प्रकार निर्दिष्ट हैं१. सम्यग्वादः।
१. सम्यग्वाद। २. धर्मप्रवादिनां परीक्षा।
२. धर्म-प्रवादियों की परीक्षा। ३. अनवद्यतपोवर्णनम् । बालतपसः नास्ति मोक्षं
३. निरवद्य तप का वर्णन । बाल-तप की मोक्ष के प्रति प्रति सर्वाराधकत्वम् ।
___ सर्वाराधकता का निषेध।। ४. संक्षेपेण नियमनं संयमनं वा उक्तम् ।
४. नियमन या संयमन का संक्षिप्त कथन । तात्पर्यार्थे प्रथमोद्देशके सम्यग्दर्शनं द्वितीये तात्पर्य की भाषा में पहले उद्देशक में सम्यग्दर्शन, दूसरे सम्यग्ज्ञानं तृतीये सम्यक्तपः चतुर्थे च सम्यक्चारित्र- में सम्यग्ज्ञान, तीसरे में सम्यगतप और चौथे में सम्यक चारित्र का मस्ति निरूपितम्।
निरूपण है। अत्र सम्यक्त्वपदेन किमस्ति प्रस्तुतमिति निक्षेपेणैव यहां 'सम्यक्त्व' पद से क्या प्रस्तुत किया गया है, यह निक्षेपों अवगन्तं शक्यम । निक्षेपावसरे 'सम्यक्त्व' पदं नियुक्तो के द्वारा ही जाना जा सकता है। निक्षेप के प्रसंग में नियुक्ति में निक्षिप्तमस्ति । तत्र द्रव्यनिक्षेपे सम्यक्पदं सप्तधा 'सम्यक्त्व' के निक्षेप किए गए हैं। द्रव्य निक्षेप में 'सम्यक' पद के भवति --
सात प्रकार हैं१. कृतम्-यथा रथः निर्वर्तितः, तस्य यथाऽवयव- १. कृत-जैसे-एक रथ का निर्माण किया गया। उसके अवयवों की लक्षणनिष्पत्तव्यसम्यक् कर्तुस्तन्निमित्तचित्तस्वास्थ्यो- समुचित निष्पत्ति हुई। यह 'द्रव्य सम्यक्' है, क्योंकि रथ त्पत्तेः, यदर्थं वा कृतं तस्य शोभनाशुकरणतया समाधान- निर्माता की उसके निमित्त से चैतसिक प्रसन्नता हुई। अथवा १. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२९ : ण य एगंतेण दुक्खेण धम्मो उदेसंमि चउत्थे समासवयणेण णियमणं भणियं । सुहेण वा कसायवमणं च।
तम्हा य नाणदंसणतवचरणे होइ जइयव्वं ॥ २. वही, पृष्ठ १२९ : जहा वा चातुस्सालमागतो बीवो ४. वही, गाथा २१७: तं सव्वं उज्जोवे ति एवं एतं अज्मयणाणं मझगतं सव्वं
अह दव्वसम्म इच्छाणुलोमियं तेसु तेसु बग्वेसुं । आयारं अवभासति ।
कयसंखयसंजुत्तो पउत्त जढ मिण्ण छिण्णं वा ॥ ३. आचारांग नियुक्ति, गाथा २१४, २१५: पढमे सम्मावाओ बीए धम्मप्पवाइयपरिक्खा । तइए अणवज्जतवो न हु बालसवेण मुक्खुत्ति ॥
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