________________
२०.
आचारांगभाज्यम्
८७.किमत्थि उवाही पासगस्स ण विज्जइ ?
स्थि । —त्ति बेमि । सं०-किमस्ति उपाधिः पश्यकस्य न विद्यते ? - नास्ति । ---इति ब्रवीमि । क्या द्रष्टा के कोई उपाधि होती है या नहीं होती ?
नहीं होती। -ऐसा मैं कहता हूं। भाष्यम् ७-उपाधिः-कषायजनितः आत्मपरि- उपाधि का अर्थ है-कषाय से उत्पन्न आत्म-परिणाम । सभी णामः । सर्वेषां जीवानां उपाधिर्वर्तते इति जिज्ञासायां प्राणियों के उपाधि है तो फिर इस जिज्ञासा में यह विकल्प उठता है अस्य विकल्पस्योत्थानं-किं पश्यकस्य' उपाधिरस्ति कि क्या द्रष्टा के उपाधि होती है या नहीं? भगवान् ने कहा--नहीं, अथवा नास्ति ? भगवतोत्तरितं-नास्ति। यः केवलं उसके उपाधि नहीं होती। जो केवल जानता-देखता है उसके न कषाय जानाति पश्यति तस्य न तु कषाय उदयमेति, न च का उदय होता है और न कर्म की उपाधि होती है । जो जो मोह के कर्मोपाधिरपि जायते । यो यो मोहानूभवस्य क्षणः स अनुभव का क्षण है, वह उपाधि का क्षण है। ज्ञाता-द्रष्टा अमोहावस्था उपाधेः क्षणः । ज्ञाता द्रष्टा अमोहावस्थामनुभवति, तेन का अनुभव करता है, इसलिए उसके उपाधि नहीं होती-ऐसा मैं तस्योपाधिन भवति-इति ब्रवीमि ।
कहता हूं।
१. आचारांग वृत्ति, पत्र १५८ : 'पश्यकस्य' केवलिना 'उपाधिः' विशेषणं, उपाधीयते इति वोपाधिः, द्रव्यतो
हिरण्यादिः, भावतोऽष्टप्रकारं कर्म, स द्विविधोप्युपाधिः किमस्त्याहोस्विन्न विद्यते ? नास्तीति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org