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आचारांगभाष्यम् प्रवेशो निरुद्धो भवति, पूर्वकर्मणां च क्षयो भवति। कर्मों का प्रवेश निरुद्ध हो जाता है और पूर्व कर्मों का क्षय होता है। तत्क्षयार्थं कषायस्य निरोधः अवश्यं कर्तव्य इति कर्मों के क्षय के लिए कषाय का निरोध अवश्य करना चाहिए, यह हृदयम् ।
इसका हार्द है।
७४. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ।
सं०यः एक जानाति, स सर्व जानाति । यः सर्व जानाति, स एक जानाति । जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को जानता है ।
भाष्यम् ७४–'एगं' इति पदं अनिर्दिष्टविशेष्यं प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'एग' शब्द का विशेष्य निर्दिष्ट नहीं है। वर्तते । अनुवृत्त्या आदानमिति प्रकृतम् । य एकमादानं- अनुवृत्ति से 'आदान' पद यहां प्रासंगिक है। जो एक आदानक्रोधकषायं जानाति स सर्वमादानं जानाति । यः क्रोध कषाय को जानता है, वह सभी आदानों-कषायों को जानता सर्वमादानं जानाति स वस्तुरूपेण एकमादानं जानाति। है। जो सभी आदानों को जानता है. वह यथार्थरूप में एक आदानमुक्तेः प्रथम उपायोऽस्ति तस्य सर्वात्मना आदान को जानता है। आदान-मुक्ति का पहला उपाय है-उसका परिज्ञानम् । यो आदानं न जानाति स कथं तस्य सम्पूर्ण ज्ञान । जो आदान को नहीं जानता वह उसके निरोध के निरोधाय निर्जरणाय वा प्रयतेत ?
लिए अथवा निर्जरण-क्षय के लिए कैसे प्रयत्न करेगा? एष आचारशास्त्रीयः दृष्टिकोणः । चूर्णी वृत्तौ च यह आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण है। चूणि और वृत्ति में प्रस्तुत प्रस्तुतसूत्र दर्शनशास्त्रीयदृष्टिकोणेन व्याख्यातमस्ति। सूत्र की व्याख्या दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण से की गई है। आगमों की आगमानां व्याख्यापद्धतेश्चत्वारि अङ्गानि विद्यन्ते- व्याख्या-पद्धति के चार अंग हैं-द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, द्रव्यानुयोगः, चरणकरणानुयोगः, गणितानुयोगः, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग । प्रत्येक सूत्र की व्याख्या इन चार धर्मकथानुयोगश्च । प्रत्येक सूत्रं एभिश्चतुभिः दृष्टिकोणों से की जाती है। इसलिए दार्शनिक दृष्टिकोण भी दृष्टिकोण: वक्तव्यं भवति । तेन दार्शनिकद ष्टिकोणोऽपि अप्रासंगिक नहीं है। नाप्रासङ्गिकः। चणिकाराभिमतम्---'जो एगं जीवद्रव्यं अजीवदव्वं
चूर्णिकार का अभिमत यह है -जो जीव अथवा अजीव द्रव्य वा अतीतानागतवट्टमाणेहिं सव्वपज्जएहिं जाणइ, को अतीत, अनागत और वर्तमान-सभी पर्यायों से जानता है, उस सिस्सो वा पूच्छति-भगवं ! जो एगं जाणइ सो व्यक्ति को लक्ष्य कर शिष्य ने पूछा--भंते ! क्या एक को जानने वाला सव्वं जाणइ? आमं, एत्थ जीवपज्जवा अजीवपज्जवा य सबको जानता है ? भाणियव्वा ।'
आचार्य ने कहा- हां। कैसे भंते?
आचार्य ने कहा-एक को जानने वाला सबको जानता है, इसका तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति जीव द्रव्य अथवा अजीव द्रव्य के
कालिक-अतीत, अनागत और वर्तमान--पर्यायों को जानता है। वत्तिकारेण किञ्चिद् विस्तृतरूपेण व्याख्यातमिदं
वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या कुछ विस्तार से की है'यः कश्चिदविशेषित: एक परमाण्वादि द्रव्यं पश्चात्- जो कोई पुरुष किसी अविशेषित एक परमाणु आदि द्रव्य को पुरस्कृतपर्यायं स्वपरपर्यायं वा जानाति-परिच्छिनत्ति, अथवा उसके अतीत और अनागत पर्यायों को अथवा स्व-पर पर्यायों स सर्व स्वपरपर्यायं जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्रव्य- को जानता है-उनका परिच्छेद करता है, वह सभी स्व-पर पर्यायों परिज्ञानस्य समस्तवस्तुपरिच्छेदाविनाभावित्वात् ।"" को जानता है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अतीत और अनागत पर्याययुक्त
होता है। उसका ज्ञान समस्त वस्तु के परिच्छेद ---विशेष ज्ञान के
बिना नहीं हो सकता। यः सर्व संसारोदरविवरवत्ति वस्तु जानाति स एक . जो पुरुष संसार में विद्यमान सभी वस्तुओं को जानता है वह
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ १२६ ।
२. आचारांग वृत्ति, पत्र १५५ ।
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