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अ० ३. शीतोष्णीय, उ० १. सूत्र १५-१६ १७. जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे । जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे।
सं०-यः पर्यवजातशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः स अशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । यः अशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञः । जो विषयों के विभिन्न पर्यायों में होने वाले शस्त्र-असंयम को जानता है, वह अशस्त्र-संयम को जानता है । जो अशस्त्र-संयम को जानता है, वह विषयों के विभिन्न पर्यायों में होने वाले शस्त्र-असंयम को जानता है ।
भाष्यम् १७-शब्दरूपादिविषयेषु प्रवृत्तिरसंयमः शब्द, रूप आदि इन्द्रिय-विषयों के प्रति होने वाली प्रवृत्ति तन्निवृत्तिश्च संयमः । एतौ द्वावपि ज्ञातव्यौ स्तः। असंयम है और उसकी निवृत्ति संयम है। असंयम और संयम-दोनों शब्दादिविषयाणां पर्यवसमूहाः जागतिभावं हिंसन्ति । को जानना आवश्यक है । शब्द आदि विषयों के विभिन्न पर्याय जागृति अतस्ते शस्त्रं भवन्ति । तेषां निग्रहश्च अशस्त्रम् । यः को नष्ट कर डालते हैं। इसलिए वे शस्त्र हैं । उनका निग्रह करना पर्यवजातशस्त्रस्य-असंयमस्य क्षेत्रज्ञो भवति, स एव अशस्त्र है। जो इस पर्यवजातशस्त्र-असंयम को जानता है, वही अशस्त्रस्य-संयमस्य क्षेत्रज्ञो भवति। यः अशस्त्रस्य अशस्त्र-संयम को जानता है। जो अशस्त्र--संयम को जानता है, क्षेत्रज्ञो भवति, स एव पर्यवजातशस्त्रस्य क्षेत्रज्ञो भवति। वही पर्यवजातशस्त्र-असंयम को जानता है। इसका तात्पर्य है कि तात्पर्यमिदम्-यावद् असंयमस्य तत्त्वं ज्ञातं नहि भवति, जब तक असंयम को नहीं जाना जाता तब तक संयम को जानना तावत् संयमस्य तत्त्वं ज्ञातुं दुश्शकम् । यावत् संयमस्य कठिन होता है । जब तक संयम को नहीं जाना जाता तब तक असंयम तत्त्वं ज्ञातं नहि भवति, तावद् असंयमस्य तत्त्वमपि को भी सम्यग् रूप से नहीं जाना जा सकता। दोनों का ज्ञान एक दूसरे सम्यक्तया ज्ञातं नहि भवति । द्वयोरपि ज्ञानं अन्योन्यं पर अबलम्बित है। यह विकासक्रम निम्न दो श्लोकों से सुबोध हो निश्रितमस्ति । अयं विकासक्रमः श्लोकद्वयेन सुगम्यो जाता हैभवतियथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।
जैसे-जैसे बुद्धि में उत्तम तत्त्वों का समावेश होता है, तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलमा अपि ॥
वैसे-वैसे सुलभता से प्राप्त विषय भी रुचिकर नहीं लगते । यथा यथा न रोचन्ते, विषया: सुलमा अपि ।
जैसे-जैसे सुलभता से प्राप्त विषय रुचिकर नहीं लगते, तथा तथा समायाति, संवित्तौ तस्वमुत्तमम् ॥'
वैसे-वैसे बुद्धि में उत्तम तत्त्वों का समावेश होता रहता है।
१८. अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।
सं०-अकर्मणः व्यवहारो न विद्यते । कर्ममुक्त (शुद्ध) आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता-नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता।
भाष्यम् १८-कर्मणि क्षीणे पुरुषः अकर्मा भवति । कर्मों के क्षीण होने पर पुरुष अकर्मा हो जाता है। अकर्मा अकर्मणः व्यवहारो न विद्यते। व्यवहारः-व्यपदेशः के लिए कोई व्यवहार नहीं होता । व्यवहार का अर्थ है-व्यपदेशविभागो वा । यथा-नैरयिकः, तिर्यग्योनिकः, मनुष्यः, कथन अथवा विभाग। जैसे-यह नैरयिक है, तिर्यग्योनिक देवो वा । एवं बालः, कुमारः, युवा, वृद्धो वा । अमुक- है, मनुष्य है अथवा देव है। इसी प्रकार यह बाल है, कुमार है, युवा नामकः अमुकगोत्रो वा।
है या वृद्ध है। अथवा यह अमुक नाम वाला है, अमुक गोत्रवाला
सकर्मणस्तु व्यवहारो विद्यते इति सूत्रकारः स्वयं निदिशति ।
सकर्मा व्यक्ति के लिए व्यवहार-व्यपदेश होता है-यह स्वयं सूत्रकार निर्दिष्ट करते हैं।
१६. कम्मुणा उवाही जायइ ।
सं०-कर्मणा उपाधिः जायते । उपाधि कर्म से होती है।
१. इष्टोपदेश (पूज्यपादकृत), श्लोक ३७,३८ ।
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