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आचारांगमाध्यम ३२. अवि से हासमासज्ज, हंता गंदीति मन्नति । अलं बालस्स संगण, वेरं वड्ढेति अप्पणो।
सं०-अपि स हासमासाद्य, हत्वा नन्दीति मन्यते । अलं बालस्य सङ्गेन, वैरं वर्धयति आत्मनः । आसक्त मनुष्य हास-आमोद-प्रमोद के लिए जीवों का वध कर हर्षित होता है। ऐसे हास-प्रसंग से उस अज्ञानी को क्या लाभ ? उससे वह अपना वैर बढाता है।
भाष्यम् ३२–मनुष्ये कषायजनितो मनस्तापः प्रकृत्या मनुष्य में प्रकृति से ही कषायजनित मनस्ताप होता है । उस एव भवति। तन्निवारणाय स मनोरंजनप्रयोगान् मनस्ताप को मिटाने के लिए वह मनोरंजन के प्रयोग करता है। उन आश्रयते । तेषु केचित् प्रयोगाःहिंसात्मका अपि भवन्ति । प्रयोगों में कुछ प्रयोग हिंसात्मक भी होते हैं। जैसे बच्चे मेंढ़कों को यथा बाला दर्दराणां पातोत्पातं कुर्वाणाः प्रमोदन्ते । बार-बार आकाश में उछाल कर नीचे गिराने में खुश होते हैं । युवक भी यवानोऽपि कुक्कूटानां मेषाणां शशकानां च प्रतिस्पर्द्धा मनोरंजन के लिए मुर्गों, मेंढ़ों तथा खरगोशों की प्रतिस्पर्धाएं आयोजित आयोजयन्ति, शुना शशकवधे च सामोदं करास्फोटनं करते हैं तथा कुत्तों द्वारा खरगोशों का वध होते देखकर हर्षित होते हैं, कुर्वन्ति । एतां मनोवृत्ति लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारेण तालियां बजाते हैं । इस मनोवृत्ति को लक्षित कर सूत्रकार ने कहाप्रोक्तम-कश्चिद् अज्ञानी पुरुषः हासपूर्वकं कोई अज्ञानी पुरुष हास-आमोद-प्रमोद के लिए प्राणियों की हत्या कर प्राणिनो हत्वा नन्दी-प्रमोदः' इति मन्यते । एतादृशस्य हर्षित होता है । ऐसे अज्ञानी व्यक्ति के संग-हास-प्रसंग से क्या प्रयोजन बालस्य सङ्गेन किं प्रयोजनम् यः प्राणिनो हत्वा आत्मनो जो प्राणियों की हत्या कर अपना वैर बढ़ाता है ? वृत्तिकार ने हास का वैरं वर्धयते ? ह्रीभयादिनिमित्तश्चेतोविप्लवो हास: अर्थ लज्जा, भय आदि के निमित्त से होने वाला चित्त-विप्लव किया इति वृत्तिकारः । ३३. तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, आयंकवंसी ण करेति पावं । सं०-तस्मात् त्रिविद्यः परममिति ज्ञात्वा आतङ्कदर्शी न करोति पापम् । इसलिए तीन विद्याओं का ज्ञाता आतंकदर्शी-हिंसा में आतंक देखने वाला पुरुष परम को जानकर पाप नहीं करता।
भाष्यम ३३-तस्मात् त्रिविद्यः परमं ज्ञात्वा आतङ्क- इसलिए त्रिविद्य पुरुष परम को जान कर हिंसा में आतंक दर्शी सन पापं-हिंसास्रवप्रवर्धकं न करोति । यथा देखता हुआ हिंसा के आस्रव को बढ़ाने वाला पापकारी आचरण नहीं परमदर्शनं हिंसानिवृत्तेः साधनमस्ति तथा हिंसायां करता। जैसे परम-मोक्ष का दर्शन हिंसा-निवृत्ति का साधन है वैसे ही आतङ्घदर्शनमपि तन्निवत्तेः साधनमस्ति । यावत् परम- आतंकदर्शन भी हिंसा-निवृत्ति का साधन है। जब तक परमदर्शन नहीं दर्शनं न स्यात् तावत् हिंसायां आतङ्कदर्शनं न भवति । होता तब तक हिंसा में आतंकदर्शन नहीं होता और जब तक हिंसा में यावत हिंसायां आतङ्गदर्शनं न भवति तावत् परमदर्शनं आतंकदर्शन नहीं होता, तब तक परमदर्शन नहीं होता। दोनों के न भवति । द्वयोर्भावे एव हिंसाश्रवात् विरतिर्जायते ।' होने पर ही हिंसा के आश्रव से विरति होती है।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ११२, णंदि पमोदो हरिसो
एगट्ठा। २. तुलना--आयारो, २/१४५ । ३. तुलना--आयारो, २/१३५ ।
४. आचारांग वृत्ति, पत्र १४४ । ५. परमः-द्रष्टव्यम्-३।२८ सूत्रभाष्यम् । ६. आतंकदर्शनपूर्वकं पापवर्जनस्य उल्लेखः पिटकेऽपि दृश्यते(क) कतमं च भिक्खवे, सम्परायिकं वजं ? इध, भिक्खवे,
एकच्चो इति परिसञ्चिक्खति-'कायदुच्चरितस्स खो पन पापको दक्खो विपाको अभिसम्परायं, वचिदुच्चरितस्स पापको दुक्खो विपाको अभिसम्परायं, मनोदुच्चरितस्स पापको दुक्खो विपाको अभिसम्परायं। अहं चेव खो पन कायेन दुच्चरितं चरेव्यं,
वाचाय दुच्चरितं चरेग्यं, मनसा दुच्चरितं चरेग्यं । किं च तं याहं न कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गति विनिपातं निरयं उपपज्जेय्यं ति । सो सम्परायिकस्स बज्जस्स भीतो कायदुच्चरितं पहाय कायसुचरितं भावेति, वचीढच्चरितं पहाय वचीसुचरितं भावेति, मनोदच्चरितं पहाय मनोसुचरितं भावेति, सुद्धं अत्तानं परिहरति । इदं वुच्चति, भिक्खवे, सम्परायिकं वज्ज।
[अंगुत्तरनिकाय २।१, भाग १, पृष्ठ ४७] (ख) अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृष्ठ ५१ : भिक्षुओ! यह
आशा करनी चाहिए कि दोष में भय मानने वाला, दोष में भय देखने वाला सभी नोषों से मुक्त हो जाएगा।
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