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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० २. सूत्र २६-३० नख-ग्रीवा-हनु-ओष्ठ-दन्त-जिह्वा-तालु-गल-गण्ड-कर्ण- तालु, गले कपोल, कान, नाक, आंख, भौंह, ललाट और सिर-इन नासा-अक्षि-भ्र-ललाट-शीर्षाणि इति द्वात्रिंशत्सु बत्तीस अवयवों का एक साथ भेदन-छेदन करने पर उसे जैसे वेदना का अवयवेष युगपद् भिद्यमानेषु छिद्यमानेषु तस्य यथा अव्यक्त अनुभव होता है वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को भी वेदना का अव्यक्तो वेदनानुभवो जायते तथा पृथ्वीकायिकजीवा- अव्यक्त अनुभव होता है। नामपि अव्यक्तो वेदनानुभवो विद्यते।
३०. अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
सं०-अप्येकः संप्रमारयेद्, अर्यक: उद्भवेत् । मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है।
भाष्यम् ३०-तृतीयो दृष्टान्तः
तीसरा दृष्टांतयथा कश्चित् पुरुषः कञ्चित् पुरुषं मूर्छामापादयति जैसे कोई पुरुष किसी व्यक्ति को मूच्छित करता है और किसी प्राणवधं नयति च । स मूच्छितावस्थायां म्रियमाणा- का प्राणवध करता है । वह मूच्छित पुरुष तथा वह मरने वाला व्यक्ति वस्थायां च यथा अव्यक्तां वेदनामनुभवति, तथा जैसे अव्यक्त वेदना का अनुभव करता है, वैसे ही स्त्यानधिनिद्रा के स्त्याधिनिद्रोदयादव्यक्तचेतनाः पृथ्वीकायिकजीवा उदय से अव्यक्त चेतना वाले पृथ्वीकायिक जीव अव्यक्त वेदना का अव्यक्तवेदनामनुभवन्ति ।
अनुभव करते हैं। __संप्रमारणं--मूर्छा। यथा पारदस्य मारणक्रिया संप्रमारण का अर्थ है -- मूर्छा । जैसे पारे की मारण क्रिया की जायते । उक्तञ्च
जाती है। कहा है-- मूछों गतो मृतो वा निदर्शनं पारदोऽत्र रसः।'
मूर्छा को प्राप्त या मृत पारद रस यहां निदर्शन बनता है। तथा चोक्तम्--
कहा भी हैमूच्छितो हरति व्याधीन्, मृतो जीवयते परान् ।
मूच्छित पारा व्याधियों को दूर करता है। मृत पारा दूसरों रोगापकारी मग्नानां, पारदानाच्च पारदः ॥ को जिलाता है। यह रोग का अपकारी-शत्रु है और जो रोग में
डूबे हुए हैं, उन्हें रोग से पार लगाने वाला है, इसलिए यह 'पारद'
कहलाता है। उद्भवणम्-मरणदशाप्रापणम् ।
उद्भवण का अर्थ है-मरण अवस्या को प्राप्त कराना। भगवत्यामपि पृथ्वीकायिकजीवानां वेदना भगवती में भी पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना दृष्टांत से स्पष्ट निदर्शिताऽस्ति--
की गई है___ गौतमः-भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीवा आक्रान्ताः गौतम-भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को आक्रान्त करने पर सन्तः कीदृशीं वेदनां प्रत्यनुभवन्ति ?
उन्हें किस प्रकार की वेदना का अनुभव होता है ? भगवान् --गौतम ! यथा कश्चिज्जराजर्जरितपुरुषः भगवान गौतम ! कोई हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला तरुण पुरुष केनचिद् हृष्टपुष्टवपुषा तरुणपुरुषेण पाणियुगलेन मूनि किसी जराजर्जरित पुरुष के सिर को दोनों हाथों से आहत करता है अभिहतः सन् कीदृशीं वेदनां प्रत्यनुभवति ?
तब वह वृद्ध पुरुष कैसी वेदना का अनुभव करता है ? गौतमः--भगवन् ! अनिष्टाम् ।
गौतम-भगवन् ! वह वृद्ध पुरुष अनिष्ट वेदना का अनुभव
करता है। भगवान् गौतम ! पृथ्वीकायिकजीवा आक्रान्ताः भगवान् गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव आक्रांत होने पर उस सन्तः ततोऽपि अनिष्टतरां वेदनां प्रत्यनुभवन्ति । वृद्ध पुरुष से भी अधिक अनिष्टतर वेदना का अनुभव करते हैं । १. भामिनीविलास, १८२ ।
जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे दढपाणि-पाय-पास-पिट्ठेतरो२. अंगसुत्ताणि २. भगवई. १९।३५ : पुढविकाइए णं भंते !
रुपरिणते तलजमलजुयल-परिघनिभबाहू चम्मेट्ठग-वृहणअक्कते समाणे केरिसियं वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरह?
मुट्ठिय-समाहत-निचितगत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए गोयमा ! से जहानामए–केइ परिसे तरुणे बलवं जुगवं लंघण-पवण-जइण-वायाम-समत्थे छए दक्खे पत्तठे कुसले
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