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आचारांगभाष्यम १०.तं णो करिस्सामि समुट्ठाए। सं0-तं नो करिष्यामि समुत्थाय । अहिंसा-व्रती संकल्प करे-मैं अहिंसा धर्म में दीक्षित होकर वह-हिंसा नहीं करूगा ।
भाष्यम् ९० --मुनिः प्रव्रज्यासमये षड्जीवनिकाय- प्रव्रज्या के समय मुनि षड्जीवनिकाय के संयम के लिए संयमाय समुत्थितो भवति, अत एव स इमं संकल्पं पुनः समुत्थित (तत्पर) होता है, इसलिए वह बार-बार इस संकल्प का पुनः अभ्यस्यति-'इदानीमहं मुनिर्जातः षड्जीवनिकाय- अभ्यास करता है-'अब मैं मुनि हो गया हूं, षड्जीवनिकाय के संयम संयमाय समुत्थितः । तेन गहस्थावस्थायां वनस्पति- के लिए उठ चुका हूं, इसलिए गृहस्थावस्था में मैंने जो वनस्पति जीवों जीवानां यं समारंभमकार्ष, तमिदानीं नो करिष्ये। का आरम्भ किया है, उसे अब नहीं करूंगा। ६१. मंता मइमं अभयं विदित्ता।
सं०-मत्वा मतिमान् अभयं विदित्वा । मतिमान् पुरुष जीवों के अस्तित्व का मनन कर और सब जीव अभय चाहते हैं-इस आत्म-तुला को समझकर किसी को भी हिंसा नहीं करता।
भाष्यम् ९१--वनस्पतिकायसमारम्भस्य परित्यागो वनस्पतिकाय के समारंभ का परित्याग अज्ञानमूलक नहीं है। नाज्ञानमूलकः, किन्तु तस्मिन्नस्ति जीवास्तित्वमिति उसमें जीव का अस्तित्व है, इस चिन्तन के साथ मतिमान् पुरुष उसके मननपूर्वकमेव मतिमान् तस्य समारम्भं परिजानाति । समारम्भ का परित्याग करता है। दूसरा कारण है-वे वनस्पतिकाय द्वितीयं कारणं, ते वनस्पतिजीवा अल्पविकसिताः के जीव अल्पविकसित होते हुए भी ऐसी अभिलाषा करते हैं कि उन्हें सन्तोऽपि इत्यभिलषन्ति-न कश्चित् तेषु मृत्युभयमापा- कोई मृत्युभय से भीत न करे। उनकी इस प्रकार की अभयवृत्ति को दयेत् इति तेषामभयवृत्ति विदित्वा मुनिस्तत्समारम्भं जानकर मुनि उनके समारम्भ का परित्याग करता है । परिजानाति ।
अभयं-णिकारेण सातं, सुखं, परिनिर्वाणं, अभयं- ___ अभय-चूर्णिकार ने सात, सुख, परिनिर्वाण और अभय--- इत्येषामेकार्थकता प्रतिपादिता ।
इनको एकार्थक माना है। १२. तं जे णो करए एसोवरए, एत्थोवरए एस अणगारेत्ति पवच्चइ ।
सं०-तं यो नो करोति एष उपरतः, अत्रोपरतः एषः अनगारः इति प्रोच्यते । जो हिंसा नहीं करता, वह व्रती होता है । इस वनस्पति-लोक की हिंसा के विषय में जो व्रती होता है, वही अनगार कहलाता है।
भाष्यम् ९२--यो मुनिरभयं विदित्वा वनस्पतिकाय- जो मुनि अभय को जानकर वनस्पतिकाय का समारम्भ नहीं समारम्भं न करोति, स एष उपरत इत्युच्यते । वनस्पति- करता, वह उपरत कहलाता है। वनस्पतिकाय के समारम्भ से ही कायसमारंभादेव गहस्था अगारं निर्मान्ति । केचन गृहस्थ गृह-निर्माण करते हैं। कुछ भिक्षु भी उस समय वनस्पति का भिक्षवोऽपि तदानीं वनस्पति छित्त्वा कुटीनिर्माणं छेदन कर कुटी का निर्माण करते थे। इस स्थिति को लक्षितकर सूत्रकार कुर्वाणा आसन् । स्थितिमेतां लक्ष्यीकृत्य सूत्रकारेणोक्तम् ने कहा-जो वनस्पति का समारम्भ करता है वह गृहस्थ ही है, उसे -'यो वनस्पतिसमारम्भं करोति, सोऽगारी एव, कथं अनगार कैसे कहा जा सकता है ? अनगार वही हो सकता है जो इस सोऽनगार इतिवक्तं शक्यः ? स एवाऽनगारो भवितुमर्हति वनस्पतिलोक में अग-वृक्षों अर्थात् समस्त वनस्पति के समारम्भ से योऽत्र-वनस्पतिलोके अगानां-वृक्षाणां उपलक्षणाद् उपरत होता है और अगार-निर्माण की प्रवृत्ति में व्याप्त नहीं होता। वनस्पतीनां समारम्भादुपरतोऽस्ति, न च अगारनिर्माणकर्मणि व्याप्तो भवति । १. विनयपिटके 'पाचित्तिय पालि' एकादसं पाचित्तियं (२) सच्चं भगवां त्ति। पत्ति - अथ खो भगवा एतस्मि निदाने एतस्मि पकरणे २. उत्तराध्ययन चूणि, पृष्ठ २६ : न गच्छंतीत्यगाः-वृक्षाः भिक्खुसङ्ग सन्निपातायेत्वा आलवके भिक्खू पटिपुच्छि
इत्यर्थः। अगैः कृतमगारं गहमित्यर्थः, नास्य अगारं विद्यत सच्चं किर तुम्हे, भिक्खवे रुक्खं छिन्वथापि छेवोपोथासीत्ति ?
इत्यनगारः।
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