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अ० २. लोकविचय, उ० ४. सूत्र ९२-९७ ६५. अलं कुसलस्स पमाएणं ।
सं०-अलं कुशलस्य प्रमादेन । कुशल प्रमाद न करे
भाष्यम् ९५-कुशलस्य प्रमादेन कि प्रयोजनम् ? कुशल का प्रसाद से क्या प्रयोजन ? इसका आशय यह है कि अस्याशयमिदं-कुशलः वीतरागः वीतरागसाधनायां वा जो वीतराग है या वीतराग की साधना में प्रवृत्त है, वह कुशल प्रवृत्तः पुरुषः । वीतरागे कुतः प्रमादस्य चर्चा ? प्रमादस्य कहलाता है। वीतराग व्यक्ति में प्रमाद का प्रसंग ही कहां प्रमाद का कारणमस्ति मोहः । तस्य प्रलयं कृत्वव पुरुषो वीतरागो कारण है-मोह। उसका सर्वथा क्षीण करके ही व्यक्ति वीतराग भवति । न च तस्मिन् क्वचिदपि कदाचिदपि विषया- बनता है। उसमें कहीं और कभी भी विषयाभिलाषा नहीं जागती। भिलाषः प्रस्फुरति । यश्च वीतरागसाधनायां प्रवृत्तः स जो वीतराग की साधना में प्रवृत्त है, वह कभी महामोह की दशा कदाचिद् महामोहदशां प्राप्नुयात् । तं लक्ष्यीकृत्य निर्दिष्टं को प्राप्त हो सकता है । उसको लक्ष्य कर भगवान् ने कहा-तू कुशल भगवता-त्वं कुशलोऽसि । वीतरागदशां अधिजिगमिषु- है। तू वीतराग-दशा को प्राप्त करना चाहता है। फिर प्रमाद से तेरा रसि । तव प्रमादेन कि प्रयोजनम् ? त्वया सततं क्या प्रयोजन ? तुझे सतत अप्रमत्त रहना चाहिए । अप्रमत्तेन भाव्यम् । ६६. संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्म संपेहाए।
सं०-शान्तिमरणं संप्रेक्ष्य, भिदुरधर्म संप्रेक्ष्य । शांति और मरण की संप्रेक्षा करने तथा अनित्य शरीर की संप्रेक्षा करने पर अप्रमाद की वृद्धि होती है।
भाष्यम ९६-नाभ्यासेन विना अप्रमादस्य आसेवनं अभ्यास के बिना प्रमाद की साधना और अप्रमाद का परिहार प्रमादस्य च परिहार: कर्त शक्यः । तेन तदालम्बनसूत्र नहीं किया जा सकता। इसलिए उसका आलंबन-सूत्र निर्दिष्ट किया निदिश्यते-शांतिसंप्रेक्षा, मरणसंप्रेक्षा, अनित्यसंप्रेक्षा- जा रहा है। शांति-संप्रेक्षा, मरण-संप्रेक्षा और अनित्य-संप्रेक्षा--ये एतानि त्रीणि सन्ति अप्रमादस्य आलम्बनानि । अप्रमाद की साधना के तीन आलंबन हैं। ___ शांतिः-निर्वाणम् । मरणम् -संसारः । अथवा शांतिः- शांति का अर्थ है--निर्वाण और मरण का अर्थ है-संसार । अव्याबाधा प्रवृत्तिः। मरणम् --सव्याबाधा प्रवृत्तिः । अथवा बाधा रहित प्रवृत्ति शांति है और बाधा सहित प्रवत्ति मरण भिदुरधर्ममिति अनित्यं शरीरम्।।
है। भिदुरधर्म का अर्थ है-शरीर की अनित्यता। शांतेर्मरणस्य अनित्यतायाश्च पौन:पुन्येन प्रेक्षया शांति, मरण और अनित्यता की बार-बार प्रेक्षा करने से प्रमादो निवर्तते अप्रमादश्च प्रवर्धते ।
प्रमाद की निवृत्ति और अप्रमाद की वृद्धि होती है। ६७. णालं पास।
सं०-नालं पश्य । तू देख ! ये भोग तृप्ति देने में समर्थ नहीं हैं ।
भाष्यम् ९७-इदमपि अप्रमादस्य आलम्बनसूत्रम्-- यह भी अप्रमाद का आलम्बन-सूत्र है-मतिमन् ! तू देख, मतिमन ! त्वं पश्य, एते कामभोगा भुज्यमाना अपि भोगे जाने वाले ये कामभोग भी पर्याप्त नहीं हैं, तृप्ति देने वाले नहीं अलमिति पर्याप्ता न भवन्ति, न तृप्तये भवन्ति । हैं। इनके भोग से उत्तरोत्तर अतृप्ति बढती है। कहा भी हैअतृप्तिश्च उत्तरोत्तरं प्रवर्धते । भणितं चनाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः।
जैसे अग्नि इंधन से, महासमुद्र नदियों से और यमराज सभी नान्तकृत् सर्वभूतानां, न पुंसां वामलोचना ।' प्राणियों को मारकर भी तृप्त नहीं होता, वैसे ही स्त्री पुरुषों से
तृप्त नहीं होती।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७५ में उद्धृत श्लोक ।
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