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अ०२. लोकविचय, उ०४-५. सूत्र ९८-१०४
११६ यो न खिद्यते स एष वीरः प्रशंसितः ।
को कुछ नहीं मिलता। ऐसी अदान की स्थिति में भी जो खिन्न नहीं
होता वह वीर पुरुष प्रशंसित होता है। १०२. ण मे देति ण कुप्पिज्जा, थोवं लधंन खिसए। पडिसेहिओ परिणमिज्जा ।
सं०-न मे ददाति न कुप्येत्, स्तोक लब्ध्वा न खिस्येत् । प्रतिषिद्धः परिणमेत् । यह मुझे भिक्षा नहीं देता-यह सोचकर उस पर क्रोध न करे। थोडा प्राप्त होने पर निन्दा न करे। गृहस्वामी प्रतिषेध करे तो वहां से चला जाए।
भाष्यम् १०२- अदानावस्थायां यदाचरितव्यं तस्य अदान की स्थिति में साधक को जो आचरण करना चाहिए, निर्देशः क्रियते-'न मे ददाति' इति न कुप्येत्, कश्चित् उसका निर्देश यह है--'वह मुझे भिक्षा नहीं देता'—यह सोचकर उस स्तोकं ददाति, तस्य न निदां कुर्यात् । प्रतिषिद्धः ततः पर क्रोध न करे। कोई दाता थोड़ा देता है तो उसकी निन्दा न करे । परिणमेत्-निवर्तेत।'
गृहस्वामी प्रतिषेध करे तो वहां से लौट जाए। ___ अदानं स्तोकदानं प्रतिषेधश्च-एताः तिस्रोऽप्यवस्थाः दान न देना, थोड़ा देना अथवा दान देने से प्रतिषेध करनामनोविचलनस्य हेतुतां प्रपद्यन्ते । समाहितात्मा मुनिः दान की ये तीनों अवस्थाएं मन को विचलित करने में कारणभूत बनती एतासु अवस्थासु समत्वं भजते। वस्तुतः समत्वमुपाश्रित हैं । समाहित आत्मा वाला मुनि इन अवस्थाओं में समता रखता है। एव वीरो भवति अथवा वीर एव समत्वमाचरितु- वास्तव में समत्व को उपासना करने वाला ही वीर होता है अथवा जो मर्हति।
वीर होता है वही समत्व का आचरण कर सकता है। १०३. एयं मोणं समणुवासेज्जासि । -त्ति बेमि ।
सं०-एतत् मौनं समनुवासयेः। -इति ब्रवीमि । मुनि इस ज्ञान का सम्यक् अनुपालन करे। -ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् १०३..-एतत् पूर्वनिर्दिष्टं मौनं त्वं समनु- पूर्व सूत्रों में निर्दिष्ट जो मौन है उसका तू सम्यक् अनुपालन वासयेः। यो मन्यते स मुनिः । मुनेर्भावः मौनम् । ज्ञानं कर । जो जानता है वह मुनि है । मुनि का भाव है-मौन । इसका
तात्पर्यार्थ है-ज्ञान अथवा संयम।
सूत्रा में निर्दिष्ट जो मौन ।
निः । मुनेर्भावः मौनम् । ज्ञानं
संयमो वा इति
पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
१०४. जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहि लोगस्स कम्म-समारंभा कज्जति, तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं ध्याणं सुण्हाणं णातीणं
धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए, पुढो पहेणाए, सामासाए, पायरासाए। सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्र: लोकस्य कर्मसमारम्भाः क्रियन्ते, तद् यथा-आत्मने पुत्रेभ्यः दुहितृभ्यः स्नुषाभ्यः ज्ञातिभ्यः धात्रीभ्यः राजभ्यः दासेभ्यः दासीभ्यः कर्मकरेभ्यः कर्मकरीभ्यः आदेशाय, पृथक् प्रहेणकाय, श्यामाशाय, प्रातराशाय । प्रकरणसङ्गत्या अदानमिति उपयुक्तमस्ति । अत्र अदान
है। राग-द्वेषयुक्त भाव से लिया हुआ और किया हुआ मेव दीर्धीकरणाद् आदानमिति मन्तव्यम् ।
भोजन भोग बन जाता है। त्याग या संयम की साधना १. जीवन यापन के लिए भोजन आवश्यक है। मुनि गृहस्थ
करने वाला मुनि भोजन लेने के अवसर पर क्रोध, निन्दा के घर से उसे प्राप्त करता है। वह (भोजन) भोग भी
आदि आवेशपूर्ण व्यवहार न करे। मन को शांत और बन सकता है और त्याग भी बन सकता है। रागष-मुक्त
संतुलित रखे। भाव से लिया हआ और किया हुआ भोजन त्याग होता
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