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तइयं अज्झयणं : सीओसणिज्जं तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक
१. सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति । सं०--सुप्ता: अमुनयः सदा, मुनयः सदा जाग्रति । अज्ञानी सदा सोते हैं, ज्ञानी सदा जागते हैं।
भाष्यम् १-प्रस्तुताध्ययने सुखदुःखतितिक्षा समुप- प्रस्तुत अध्ययन में सुख-दुःख की तितिक्षा-सहिष्णुता का दिश्यते । तितिक्षां विना अहिंसाया अपरिग्रहस्य च उपदेश दिया गया है। तितिक्षा के बिना अहिंसा और अपरिग्रह की नास्ति सिद्धिः । तत्सिद्धयर्थं सुखं दुःखञ्च द्वयमपि भवति सिद्धि नहीं होती। उनकी सिद्धि के लिए सुख और दुख-दोनों को सोढव्यम् । अमुनिः न तितिक्षामर्हति । मुनिः सदा सहन करना होता है । अमुनि तितिक्षा नहीं कर सकता । मुनि सदा जागति । स एव तामह ति, इति वस्तुसत्यं सूत्रकारः जागता रहता है । वही तितिक्षा करने में समर्थ होता है । इस सत्य को प्रवक्ति-यो मन्यते त्रिकालावस्थं जगत् स मुनिः मनन- सूत्रकार इस प्रकार प्रगट करते हैं----जो जगत् की कालिक अवस्था शीलो ज्ञानी वा। अमुनिः तद्विपरीतः । अमुनयः को जानता है, अथवा जो मननशील होता है, ज्ञानी होता सप्ताः भवन्ति । सुप्तो द्विविधः-द्रव्यसुप्त:-निद्रा- है, वह मुनि है । उसके विपरीत होता है अमुनि । अमुनि सुप्त होते हैं। सुप्तः, भावसुप्तः-हिंसायां परिग्रहे वा प्रवृत्तः, विषय- सुप्त के दो प्रकार हैं-द्रव्य-सुप्त और भाव-सुप्त । द्रव्य-सुप्ता कषायैर्वा धर्म प्रति सुप्तः । जागृतोऽपि द्विविधः-द्रव्य- वह होता है जो निद्रा में सोया हुआ है और भाव-सुप्त वह होता है जागतः-निद्रामुक्तः, भावजागृत:-अहिंसायामपरिग्रहे जो हिंसा और परिग्रह में प्रवृत्त है तथा विषय अथवा कषायों के वशीभूत च लीनः, सम्यग्दष्टिः , वितृष्णः, धर्म प्रति उत्साह- होकर धर्म के प्रति सुप्त है। जागृत के भी दो प्रकार हैं-द्रव्य-जागृत वांश्च।
और भाव-जागृत । द्रव्य-जागृत वह है जो निद्रामुक्त है और भावजागृत वह है जो अहिंसा तथा अपरिग्रह में लीन है, सम्यग्दृष्टि है,
वितृष्ण है और धर्म के प्रति उत्साहवान् है। ज्ञानयोगेन मुनेः चित्तं मनः मस्तिष्क समग्रं नाडी- ज्ञानयोग से मुनि का चित्त, मन, मस्तिष्क और सारा नाड़ीतन्त्रं च सतताप्रमादवशात् स्वाधीनं भवति । स निद्रा- तंत्र-ये सब सतत अप्रमाद की साधना के कारण उसके अधीन हो वस्थायामपि नाकरणीयं करोति इति सदा जागरणस्य जाते हैं। वह निद्रावस्था में भी अकरणीय कार्य नहीं करता, यही सदा रहस्यम् । काव्यसाहित्येऽपि सततजागरूकतायाः सूक्तं जागृत रहने का रहस्य है। काव्यसाहित्य में भी सतत जागरूक रहने लभ्यते
का सूक्त प्राप्त है'मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमार्गे,
अग्नि-परीक्षा के समय सीता कहती है-'हे अग्नि ! यदि मैंने यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि ।
मन से, वचन से और शरीर से, जागृत अवस्था में या सुप्त अवस्था में, तदिह बह शरीरं मामकं पावकेदं,
राघव के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के प्रति पतिभाव किया हो तो तू विकृतसुकृतभाजां येन साक्षी त्वमेव ।।'
मेरे इस शरीर को जला डाल । हे पावक ! तू ही है साक्षी पाप और पुण्य करने वालों का।
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