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आमुखम्
१६१ विविधैः पदैः सन्दृब्धं दृश्यते । एतेन दर्शनपदेन सत्यं वर्जक सत्य अहिंसा से पृथक् नहीं है। इस अध्ययन में-'पुरुष ! तू विवक्षितमस्ति । मृषावादवर्जनात्मकं सत्यं न अहिंसा- सत्य में धृति कर', 'पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर', 'जो सत्य मतिरिणक्ति। अस्मिन्नध्ययने 'सच्चंसि धिति कुम्वह',' की आज्ञा में उपस्थित है वह मेधावी मृत्यु अथवा कामनाओं को तर 'पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि", "सच्चस्स आणाए उवट्ठिए जाता है'-आदि सूत्र अमृषावादात्मक सत्य के वाचक सूत्र नहीं हैं, से मेहावी मारं तरति" प्रभृतीनि सूत्राणि अमृषावादात्मक- किंतु ये हैं सम्यग्दर्शनात्मक सत्य के वाचक अथवा आत्मा और पदार्थ सत्याभिधायकानि सूत्राणि न सन्ति। एतानि सन्ति की यथार्थता के निरूपक सूत्र । सम्यग्दर्शनात्मकसत्याभिधायकानि अथवा आत्मनः पदार्थस्य च याथार्थ्य निरूपकाणि । __ जैनदर्शने सर्वज्ञवादः निष्ठां प्राप्तोस्ति । आचारांगे जैन दर्शन में सर्वज्ञवाद का सांगोपांग वर्णन है। आचारांग में सर्वज्ञवादः चचितोऽस्ति नवा इति प्रश्न: विद्वद्भिः सर्वज्ञवाद की चर्चा है या नहीं, यह प्रश्न विद्वान् व्यक्ति उपस्थित उपस्थाप्यते। सर्वज्ञसंबंधिनी मध्यकालीना चर्चा करते हैं। मध्यकाल में सर्वज्ञसंबंधी जो चर्चाएं हुईं, वे इसमें हैं, अस्मिन्नपि समस्ति तथापि 'एतत् पश्यकस्य दर्शनमस्ति' फिर भी यह द्रष्टा का दर्शन है'--इस वाक्यांश से यह सुनिश्चित हो अनेन वाक्यांशेन एतत् सुनिश्चितं भवति यत् जाता है कि जनदर्शन द्रष्टा का दर्शन है, न कि तर्क से उत्पन्न दर्शन । एतज्जैनदर्शनं द्रष्टुर्दर्शनं विद्यते न तु तर्कोद्भवं दर्शनम् । पश्यक अर्थात् द्रष्टा दो विशेषणों से विशेषित है--(१) जो उपरतशस्त्र पश्यकोपि द्वाभ्यां विशेषणाभ्यां विशेषितोऽस्ति-य अथवा अहिंसक होता है और (२) जो पर्यन्तकर अथवा ज्ञानावरण कर्म उपरतशस्त्र: अहिंसको वा भवति, य: पर्यन्तकर: ज्ञाना- का अंत करने वाला होता है, वही पश्यक या द्रष्टा होता है। 'कर्म से वरणस्य अन्तकरो वा भवति, स एव पश्यको भवति । उपाधि होती है।' 'द्रष्टा के कोई उपाधि नहीं होती।' इन दोनों सूत्रों कर्मणा उपाधिर्भवति । पश्यकस्य उपाधिन भवति ।' के संदर्भ में सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए प्रयुक्त मध्यकालीन तक का अनयोः सूत्रयोः सन्दर्भ सर्वज्ञसिद्धय प्रयुक्तः समवतरण होता है-'प्रज्ञा के तारतम्य को विश्रान्ति आदि की सिद्धि मध्यकालीनस्तर्कः समवतरति-'प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादि- से केवलज्ञान की सिद्धि होती है।' सिद्धेस्तसिद्धिः।'
प्रज्ञाया अतिशयः-तारतम्यं क्वचिद् विश्रान्तम्, प्रज्ञा का अतिशय-तारतम्य कहीं विधान्त होता है, क्योंकि वह अतिशयत्वात, परिमाणातिशयवदित्यनुमानेन निरतिशय- अतिशय है। प्रत्येक अतिशय की कहीं न कहीं विश्रांति (चरम परिणति) प्रज्ञासिद्धया तस्य केवलज्ञानस्य सिद्धिः, तत्सिद्धिरूपत्वात् अवश्य होती है, जैसे परिमाण के अतिशय की विश्रान्ति आकाश में हुई केवलज्ञानसिद्धेः । 'आदि' ग्रहणात् सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः है। इस अनुमान प्रमाण से निरतिशय प्रज्ञा की सिद्धि होने से केवलज्ञान कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् घटवदित्यतो, की सिद्धि होती है। निरतिशय प्रज्ञा की सिद्धि ही केवलज्ञान की सिद्धि ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्तेश्च तत्सिद्धि:, है। सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से केवलज्ञान की सिद्धि के लिए यह यदाह
अनुमान भी समझ लेना चाहिए। सूक्ष्म, अन्तरित-व्यवहित तथा दूरस्थ पदार्थ किसी के प्रत्यक्षज्ञान के विषय हैं, क्योंकि वे प्रमेय हैं। जो प्रमेय होता है वह किसी न किसी के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय अवश्य होता है, जैसे घट । तथा ज्योतिष ज्ञान में जो अविसंवाद देखा जाता है, उससे
भी केवलज्ञान की सिद्धि होती है। कहा है'धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत् पुंसां कुतः पुनः ।
'अत्यंत परोक्ष पदार्थों को भी कोई पुरुष अवश्य जानता है। ज्योतिर्ज्ञानाविसंवाद: श्रुताच्चेत् साधनान्तरम् ॥
ऐसा नहीं होता तो ज्योतिष ज्ञान में जो अविसंवाद है, वह कैसे होता? (सिद्धिविनिश्चय, पृ० ४१३) यदि कहा जाए, यह अविसंवाद श्रुत (शास्त्र) से होता है, तो उसके
लिए भी दूसरे साधन की आवश्यकता है।' १. आयारो, ३२८-समत्तदंसी। ३०–भयाणुपस्सी। ३. वही, ३.६५॥
३३-आयंकदंसी। ३५-णिक्कम्मदंसी। ३८-परम- ४. वही, ३६६। बंसी । ४८-अणोमदंसी । ७२,८५-एयं पासगस्स बसणं । ५. वही. ३८५। ८३-- कोहदंसी...""दुक्खदंसी।
६. वही, ३।१९। २. आयारो, ३४०।
७. वही, ३।८७ ।
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