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आचारांगभाष्यम
१७८. एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
सं०-एष वीरः प्रशंसितः, य बद्धान् प्रतिमोचयेत् । वही वीर प्रशंसित होता है, जो बंधे हुए मनुष्यों को मुक्त करता है।
भाष्यम् १७८--यः पूर्वनिर्दिष्टप्रकारेण धर्मकथां जो मुनि पूर्व निर्दिष्ट विधि से धर्मकथा करता हुआ बद्ध कुर्वन् बद्धान् मोचयति, स एष वीरः-धर्मकथायां व्यक्तियों को मुक्त करता है, वही वीर धर्मकथा करने में श्रेष्ठ हैश्रेष्ठः' इति प्रशस्यते। लोकाः खलु पूर्वाग्रहैः कर्मभिः इस प्रकार प्रशंसित होता है। लोग पूर्वाग्रहों से, कर्मों से, कर्मजनित तज्जनितसंस्कारैः परिग्रहेण च बद्धा भवन्ति । पूर्वनिर्दिष्ट- संस्कारों से तथा परिग्रह से बन्धे हुए होते हैं । पूर्वनिर्दिष्ट विवेक-विकल विवेकशून्यः धर्मकथो न तान् तेभ्यो मोक्तुमर्हति । स धर्मकथो उन लोगों को इन सब बंधनों से मुक्त नहीं कर सकता । वही एव तान् मोक्तुमर्हति यो भवति विचाराग्रहेण धर्मकथी लोगों को इन बंधनों से मुक्त कर सकता है, जो स्वयं वैचारिक मुक्तः, अनेकान्तदृष्टिः , समन्वयप्रवणमतिः, समत्वभावं आग्रह से मुक्त है, अनेकान्तदृष्टि से सम्पन्न है, समन्वय की बुद्धि से प्रतिपन्नः। तादृशः आत्मीयोत्तमतया सर्वत्र प्रशंसितो कुशल है और समताभाव को बनाए रखने वाला है। वैसा व्यक्ति भवति।
अपनी पवित्रता और निर्मलता के कारण प्रशंसित होता है। १७६. उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिणचारी।
सं०-ऊवं अधः तिर्यक् दिशासु स सर्वत: सर्वपरिज्ञाचारी। वह ऊंची विशा, नीची दिशा और तिरछी दिशा सब दिशाओं में, सब ओर से, समग्र परिज्ञा के द्वारा चलता है।
भाष्यम् १७९-स अपरिग्रही पुरुषः ऊर्ध्वं अधः वह अपरिग्रही पुरुष ऊंची, नीची और तिरछी-इन सभी तिर्यक-एतासु सर्वासु दिक्षु सर्वकालं सर्वात्मप्रदेशैर्वा दिशाओं में सदा अथवा सभी आत्मप्रदेशों से परिज्ञा-विवेक से आचरण परिज्ञया-विवेकेन आचरति । स पदार्थं चैतन्यञ्च करता है । वह पदार्थ और चैतन्य की भिन्नता का अनुभव करता हुआ भिन्नत्वेन अनुभवन् आवश्यक क्रियाकलापं करोति, न आवश्यक क्रिया-कलाप सम्पन्न करता है। वह राग-द्वेष से प्रेरित च रागद्वेषाभ्यां प्रेरितः करोति, इत्येतदेव तस्य सर्व- होकर नहीं करता-यही उसकी सर्वपरिज्ञाचारिता है। परिज्ञाचारित्वं भवति । १८०. ण लिप्पई छणपएण वीरे।
सं०-न लिप्यते क्षणपदेन वीरः । वीर पुरुष हिंसा-कर्म से लिप्त नहीं होता।
भाष्यम् १८०-तादशो वीरः क्षणपदेन न लिप्यते - वैसा वीर पुरुष क्षणपद से लिप्त नहीं होता-हिंसा से हिंसासंभूतकर्मणा न बध्यते । अस्मिन् जीवाकुले पदार्था- संभूत कर्मों से नहीं बंधता। इस जीवाकुल और पदार्थाकीर्ण कुले च लोके कः कथमलिप्त: स्थातुमर्हति ? पदे पदे लोक में कौन कैसे अलिप्त रह सकता है ? पग-पग पर हिंसा और हिंसायाः ममत्वस्य च प्रसंगो वर्तते। तथापि सर्वत: ममत्व का प्रसंग रहता है । फिर भी सभी प्रकार से जो सर्वपरिज्ञाचारी सर्वपरिज्ञाचारी–सर्वचैतन्यपदार्थयोः भेदमनूभवन है-जो चैतन्य और पदार्थ की भिन्नता का अनुभव करता है वह पुरुष पुरुषः न ममतां गच्छति । परिग्रहप्रसूता च हिंसा। ममता नहीं करता। हिंसा परिग्रह से उत्पन्न होती है। ममत्वमुक्त अममत्वः अप्रमादमारूढो भवति । तेन स क्रियां व्यक्ति अप्रमत्त अवस्था में आरोहण कर देता है। इसलिए वह व्यक्ति कुर्वाणोऽपि न हिंसया लिप्तो भवति ।
प्रवृत्ति करता हुमा भी हिंसा से लिप्त नहीं होता। इदं सूत्रं अहिंसायाः हृदयं वर्तते । अत एव हिंसायाः प्रस्तुत सूत्र अहिंसा का हृदय है। इससे द्रव्यहिंसा और द्रव्यभावयोविवेकः कर्तुं शक्यः ।
भावहिंसा का विवेक किया जा सकता है। निर्लेपतावादस्य चिन्तनं बहप्राचीनं वर्तते । निर्लेपतावाद का चिन्तन बहुत प्राचीन है। उत्तराध्ययन सूत्र उत्तराध्ययने इदमुपलभ्यते–'उवलेवो होइ भोगीसु, में यह उपलब्ध होता है-'भोगों में उपलेप होता है। अभोगी 1. आप्टे, वीरः--Excellent, eminent.
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