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जाम
भ० २. लोकविचव, उ०६. सूत्र १८३-१८६ १८५. उद्देसो पासगस्स णस्थि ।
सं०-उद्देशः पश्यकस्य नास्ति । द्रष्टा के लिए कोई निर्देश नहीं है।
भाष्यम् १८५-यः पुरुषः परिग्रहस्य अपायान् जो पुरुष परिग्रह के दोषों और अपरिग्रह के गुणों को देखता अपरिग्रहस्य गुणांश्च पश्यति, तस्य कृते उद्देशो नास्ति । है, उसके लिए उद्देश नहीं होता, कोई निर्देश नहीं होता । जिससे उद्दिश्यते येन स उद्देशः, यथा-अयं बद्धः, अयं मुक्तः, उद्दिष्ट किया जाता है, बताया जाता है, वह है उद्देश । जैसे—यह बद्ध अयं सुखी, अयं दुःखी इत्यादि । यः अपरिग्रहस्य सिद्धया है, यह मुक्त है, यह सुखी है, यह दुःखी है आदि । जो अपरिग्रह की पश्यकभावमापन्नः तस्य कृते बद्धमुक्तादिपर्यायाणामुद्देशाः सिद्धि से द्रष्टा बन जाता है, उसके लिए बद्ध, मुक्त आदि पर्यायों का नोपेक्षिताः भवन्ति । द्रष्टा द्रष्टा एव। स कथन मपेक्षित नहीं होता । द्रष्टा द्रष्टा ही होता है। वह द्रष्टाभाव के पश्यकभावबलात् बन्धमोक्षादिपर्यायान् नानुगच्छति कारण बन्धमुक्ति के पर्यायों को प्राप्त नहीं करता अथवा उनका अनुभव नानुभवति वा। यः परिग्रहं पदार्थ वा पश्यति, स न नहीं करता। जो परिग्रह को देखता है अथवा पदार्थों को देखता है, वह द्रष्टा भवितुमर्हति । यः केवलं चैतन्यमनुभवति, स एव द्रष्टा नहीं हो सकता। जो केवल चैतन्य का अनुभव करता है, वही द्रष्टेति पदवाच्यो भवति ।
द्रष्टा कहलाता है। ___ अत्र उद्देशपदं उपाधेविं व्यनक्ति। तृतीयाध्ययनस्य यहां 'उद्देश' पद उपाधि का अर्थ अभिव्यक्त करता है। तीसरे उपसंहारे (सूत्र ८७) 'पश्यकस्य उपाधिर्न विद्यते' अध्ययन के उपसंहार में (सूत्र ८७) ऐसा प्रतिपादित है कि पश्यक के इति प्रतिपादितमस्ति । तेनास्य सम्बन्धो योजनीयः । उपाधि नहीं होती। उसके साथ प्रस्तुत सूत्र का संबंध जोड़ना चाहिए। यः कर्मकृतां सुखदुःखाद्यवस्थामनुभवति तस्य जो पुरुष कर्मकृत सुख-दुःख आदि अवस्थाओं का अनुभव करता है, उपाधिर्जायते,' तस्यैव उद्देशो जायते, यश्चैतन्यमनुभवति उसके उपाधि होती है, उसी के ही उद्देश होता है। जो चैतन्य का तस्य नैतत् जायते।'
अनुभव करता है, उसके उद्देश नहीं होता, उपाधि नहीं होती। १८६. बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणुपरियट्टइ।-त्ति बेमि ।
सं०-बाल: पुन: स्निहः कामसमनोज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेव आवत्तं अनुपरिवर्तते। -इति प्रवीमि । अज्ञानी पुरुष स्नेहवान् और काम-प्रार्थी होकर दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी बना हुआ दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता रहता है। ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् १८६-यः पश्यको न भवति, स जो पश्यक-द्रष्टा नहीं होता वह लोभ से अभिभूत होने के लोभाभिभूतत्वात् अज्ञानत्वाच्च वृद्धो युवापि सन् बाल कारण और अज्ञान के कारण 'बाल' कहलाता है, फिर चाहे वह बुद्ध इत्युच्यते। स यत्र तत्र प्रीणाति कामान्, स्नेहवान् या युवा ही क्यों न हो। वह यत्र-तत्र कामों के प्रति अनुरक्त होता है, भवति-इन्द्रियविषयान् समनुजानाति, तेन स स्नेहिल होता है अर्थात् वह इन्द्रिय-विषयों का अनुमोदन करता है, अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेव आवर्त अनुपरिवर्तते। इसलिए वह दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी बना हुमा
दुःखों के आवर्त में अनुपरिवर्तन करता रहता है। इन्द्रियविषयाणामासेवनं सुखानुभूति जनयदपि इन्द्रिय-विषयों का आसेवन सुख की अनुभूति पैदा करता है, परिणामे दुःखं जनयति । तेन वस्तुतः तद् दुःखमेव । पर उसकी परिणति दुःख में होती है। इसलिए वस्तुतः वह दुःख ही कामस्य अनुमोदकः न दुःखावर्तस्य पारं प्राप्नोति इति है। काम का अनुमोदन करने वाला पुरुष दु:ख के आवर्स का पार नहीं तात्पर्यम् ।
पा सकता, यही इसका तात्पर्य है। .
१. (क) आयारो, ३१८ : अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ । (३) आयारो, ३।१९ : कम्मुणा उबाही बाया।
२. द्रष्टव्यम्-आयारो, २७३ । ३. द्रष्टव्यम्-आयारो, २०७४।
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