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१५.
भाचारांगभाष्यम अपरिग्रहस्य तत्त्वं यथा पुण्यस्य कथयति तथा तुच्छस्य वह अपरिग्रह के तत्त्व का निरूपण जैसे सम्पन्न व्यक्ति के समक्ष करता कथयति । गतप्रत्यागतलक्षणेन यथा तुच्छस्य कथयति, है, वैसे ही विपन्न व्यक्ति के समक्ष करता है और जैसे विपन्न व्यक्ति तथा पूण्यस्य कथयति। केवलं निर्जरार्थमेव धर्मः के समक्ष करता है, वैसे ही सम्पन्न व्यक्ति के समक्ष करता है । केवल आख्यातव्यः। अनन्यदर्शी तदर्थमेव कथयति, अत: निर्जरा के लिए ही धर्म का आख्यान करना चाहिए । अनन्यदर्शी केवल तत्समक्षे पुण्यस्य-ऋद्धिमतः, तुच्छस्य-दरिद्रस्य भेदो निर्जरा के लिए ही धर्मकथा करता है, इसलिए उसके समक्ष वैभवशाली नार्थवान् भवति ।'
और दरिद्र का भेद अर्थवान् नहीं होता। अपरिग्रहस्य सिद्धान्तः धनिनां कृते यावान् हितावहः अपरिग्रह का सिद्धान्त वैभवशाली व्यक्तियों के लिए जितना तावानेव विभवविहीनानां कृतेऽपि, किञ्च धनं उभयत्र हितकारी है उतना ही हितकारी है वैभवहीन व्यक्तियों के लिए । यह नास्ति–एकस्य पार्वे विद्यते, इतरस्य पार्वे नास्ति, सच है कि दोनों के पास धन नहीं है-एक के पास है और दूसरे के किन्तु मूर्छा उभयत्रापि विद्यते । तेन तद्विमुक्तये अपरि- पास नहीं हैं, किन्तु मूर्छा या ममत्व दोनों में है। इसलिए उस मूर्छा ग्रहधर्मस्य उपदेशः द्वयोरपि समक्षे एकेनैव प्रकारेण की विमुक्ति के लिए अपरिग्रह धर्म का उपदेश दोनों प्रकार के व्यक्तियों करणीयः-येन आदरेण पुण्यस्य अपरिग्रहो वक्तव्यः के समक्ष समान प्रकार से करना चाहिए-जिस आदरभाव से वैभवतेनैव आदरेण तुच्छस्य वक्तव्यः। नात्र धनिन: शाली को अपरिग्रह का सिद्धान्त बताया जाता है, उसी आदरभाव से अतिरेकः कार्यः । येनादरेण तुच्छस्य वक्तव्यः, वैभवहीन व्यक्ति को वह सिद्धान्त बताना चाहिए। सिद्धान्त के तेनैवादरेण पुण्यस्य वक्तव्यः । नैव पुण्यं प्रति घृणाभाव: प्रतिपादन में धनी व्यक्ति को अतिरिक्त महत्त्व नहीं देना चाहिए। प्रदर्शनीयः।
जिस आदरभाव से वैभवहीन व्यक्ति को अपरिग्रह का सिद्धान्त बताया जाता है, उसी आदरभाव से बैभवशाली व्यक्ति को अपरिग्रह का सिद्धान्त बताना चाहिए । वैभवशाली व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव नहीं
दिखाना चाहिए। १७५. अवि य हणे अणादियमाणे ।
सं०-अपि च हन्यात् अनाद्रियमाणः । धर्म-कथा में किसी के सिद्धांत का अनादर करने पर कोई व्यक्ति मार-पीट भी कर सकता है।
भाष्यम् १७५-अपिः सम्भावनायाम् । यदि प्रस्तुत सूत्र में 'अपि' शब्द सम्भावना के अर्थ में है । यदि धर्मधर्मतत्त्वस्य प्रतिपादने कोऽपि कस्यचिद् अनादरं कुर्यात् तत्त्व के प्रतिपादन में कोई किसी का 'अनादर करता है तो सम्भव है तदेति सम्भवति, स अनाद्रियमाणः पुरुष : तं धर्मोपदेष्टारं वह अनादृत व्यक्ति उस धर्मोपदेष्टा की हत्या कर दे। यहां 'हन्यात्' हन्यात । अस्य धातुपदस्य तात्पर्य मिदम्-शारीरिक त्रासं धातुपद का तात्पर्य है-शारीरिक त्रास देना, आक्रोश करना अथवा दद्यात, आक्रोशेत अथवा तदुपदिष्टं धर्मं न स्वीकुर्यात् । धर्मोपदेष्टा द्वारा उपदिष्ट धर्म को स्वीकार न करना। धर्मकथा के 'एते पुण्याश्चौरा भवन्ति' धर्मकथाप्रसंगे इत्यादि- प्रसंग में ऐसा प्रतिपादन करना कि ये वैभवशाली व्यक्ति चोर होते प्रतिपादनं न धर्मतत्त्वस्य स्वीकृतये भवति । एते तुच्छा हैं-ऐसा कथन धर्मतत्त्व की स्वीकृति में सहायक नहीं होता। धर्मकथा अधर्मेण ईदशा जाताः--कष्टासनाः कुगृहाः के प्रसंग में ऐसा कहना कि ये दरिद्र व्यक्ति अधार्मिक होने के कारण कुभोजनाश्च' इत्यादिप्रतिपादने ते न धर्म गृह्णन्ति, ही कष्ट में स्थित हैं, टूटे-फूटे घरों में रहने वाले तथा कुभोजन करने न च तत्र पुनरायान्ति आक्रोशादिकमपि कुर्यः। वाले होते हैं। ऐसा कहने पर वे सामान्य या अधनी व्यक्ति धर्म को
स्वीकार नहीं करते और न वे मुनियों के स्थान पर धर्म सुनने पुनः आते हैं । वे धर्मोपदेशकों पर आक्रोश आदि भी करने लग जाते हैं।
१. अंगसुत्ताणि १, सूयगडो, २२२६५३ : से भिक्खू धम्म किट्टेमाणे-णो अण्णस्स हेडं धम्ममाइक्ज्ज्जा । णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। णो वस्थस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा। जो लेणस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा। जो
सयणस्स हेउ धम्ममाइक्खेज्जा। णो अणेसि विस्वरूवाणं कामभोगाणं हेडं धम्ममाइक्वेज्जा। अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा । णण्णत्व कम्मणिज्जरट्टयाए धम्ममाइक्खेज्जा। २. तुलना-आयारो, २०४९ : को हीणे णो अइरिते।
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