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१५७. से हु विद्रुप मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं ।
सं० -- स खलु दृष्टपथः मुनि: यस्य नास्ति ममायितम् । जिसके पास परिग्रह नहीं है, उसी मुनि ने पथ को देखा है।
भाष्यम् १५७ - ममत्वेन पन्था अपि विपर्यस्तो भवति, ज्ञानमपि च विपर्यस्तं भवति । यस्व ममत्वं नास्ति स एव दृष्टपथः, स एव मुनिः ज्ञानीति यावत् । ममत्वग्रन्थे: विमोक्षे सत्येवं दर्शनस्य ज्ञानस्य च सहजा उपलब्धिर्भवति इति तात्पर्यम् ।
१५८. तं परिण्णाय मेहावी ।
सं० तं परिज्ञाय मेधावी ।
मेधावी पुरुष परिग्रह को जाने और उसका त्याग करे ।
भाष्यम् १५८ - मेधावी तं तं परिग्रहं ज्ञ-परिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान- परिज्ञया प्रत्याचक्षीत ।
भाष्यम् १५९ - स मतिमान् लोकं विदित्वा लोकसंज्ञाञ्च वमित्वा पराक्रमेत इति ब्रवीमि ।'
१५९. विदित्ता लोगं, बंता लोगसण्णं, से मतिमं परक्कमेज्जासि सि बेमि । सं० – विदित्वा लोकं, वान्त्वा लोकसंज्ञां स मतिमान् पराक्रमेत इति ब्रवीमि ।
मतिमान् पुरुष लोक को जानकर, लोकसंज्ञा को त्याग कर संयम में पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूं ।
लोक:- लोभः ममत्वं वा ।
लोक- लोभमतिः ममत्वमतिर्वा ।
एताभ्यां द्वाभ्यां पदाभ्यामिति ध्वन्यते प्रथमं परिग्रहस्य स्वरूपावबोधः कार्यः तदनन्तरं तस्य संज्ञाया मतेः संस्कारस्य वा परिष्कारः कार्यः । अपरिग्रह सिद्धेष पूर्णप्रयोगः । *
भाष्यम् १६० - लोकसंज्ञानिवृत्तये पराक्रमं कुर्वतोऽपि पुरुषस्य कदाचित् तपः- नियम-संयमेषु अरतिर्भवेत् कदा विश्व तस्य विषयकषायादिलक्षणे असंयमे रतिर्भवेत् स
ममत्व के कारण मार्ग भी विपरीत हो जाता है और ज्ञान भी विपरीत हो जाता है। जिसमें ममकार नहीं होता, उसी ने को देखा है, वही मुनि है, ज्ञानी है। ममत्व की गांठ खुलते ही ऐसे और ज्ञान की उपलब्धि सहज हो जाती है, यही इसका तात्पर्य है ।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९३ एवं तित्यागराणाए बेमि, पो स्वेच्या अहिवारसमतीए एवं बेमियणसमतीए ।
मेधावी मुनि उस परिग्रह को ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका परित्याग करे ।
१६०. णाति सहते बोरे, वीरे णो सहते रति जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जति ।
सं० नाति सहते वीरः बीरो नो सहते रतिम् । यस्मात् अविमनाः वीर, तस्मात् बीरः न रज्यति ।
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वह मतिमान् मुनि सोकसोम या ममत्व के परिणामों को जानकर, लोकसंज्ञा लोभ की मति या ममत्वद्धि को त्याग कर संयम में पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूँ ।
लोक का अर्थ है - लोभ या ममत्व ।
लोकसंज्ञा का अर्थ है - लोभ की मति या ममत्व की मति ।
इन दोनों पदों की ध्वनि यह है-सबसे पहले परिग्रह के स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए उसके पश्चात् परिग्रह की संज्ञा, मति अथवा संस्कार का परिष्कार करना चाहिए। अपरिग्रह की सिद्धि के लिए यह पूरा प्रयोग है।
वीर पुरुष अरति को सहन नहीं करता, वह रति को सहन नहीं करता, क्योंकि वह विमनस्क नहीं होता-मध्यस्थ रहता है। इसलिए वह आसक्त नहीं होता ।
आचारांगभाष्यम्
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साधक लोकसंज्ञा की निवृत्ति के लिए पराक्रम करता है, फिर भी कभी उसके मन में तप, नियम और संयम के प्रति भरति हो सकती है और कभी उसके मन में विषय कषाय आदि असंयम में रति हो
२. तुलना - आयाशे, ३।२५ ।
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