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अ० २. लोकविचय, उ०६. सूत्र १५२-१५६ १५५. कम्मोवसंती।
सं०-कर्मोपशान्तिः। यह परिज्ञा कर्म की उपशांति है।
परिग्रह के असंग्रह से कर्मों की उपशांति होती है। इसलिए अनिकरण का अर्थ कर्मों की उपशांति भी है।
भाष्यम् १५५–परिग्रहस्य असंग्रहेण कर्मणां उपशान्तिः भवति। अत: अनिकरणं कर्मोपशान्तिः इत्यपि उच्यते ।
कर्मोपशान्तिः-नवस्य कर्मण: अकरणं पुराणस्य च क्षपणम् ।
कर्मोपशांति का अर्थ है-नए कर्मों का मकरण अर्थात् अबंध तथा पुराने कर्मों का क्षय।
१५६. जे ममाइय-मति जहाति, से जहाति ममाइयं ।
सं०-यः ममायितमति जहाति, स जहाति ममायितम् । जो परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है, वह परिग्रह का त्याग कर सकता है ।
भाष्यम् १५६-ममायितम्-ममीकृतम् । ममायितस्य ममायित का अर्थ है-यह मेरा है, ऐसी भावना । ममायित व्यक्ति मतिः ममायितमतिः । ममीकारः प्राणिषु भवति पदार्थेषु की मति ममायितमति है । ममकार प्राणियों के प्रति और पदार्थों वा, यथा-मम माता, मम पिता, मम गृहं, मम के प्रति होता है, जैसे-मेरी माता, मेरे पिता, मेरा घर, मेरी भूमि । भूमिः। यः पुरुषः बुद्धिगतं ममत्वं त्यजति स जो व्यक्ति बुद्धिगत ममत्व को छोड़ देता है, वही वास्तव में प्राणिएव वस्तुतः प्राणिविषयक पदार्थविषयकं वा ममत्वं विषयक अथवा पदार्थ-विषयक ममत्व का त्याग करता है। त्यजति ।
अस्मिन् विषये चूर्णिकारेण भरतस्य उदाहरणं इस विषय में चूर्णिकार ने भरत का उदाहरण प्रस्तुत किया प्रस्तुतीकृतम्-भरहसामिणा आदंसघरे पविट्ठणं ममी- है-'भरत चक्रवर्ती ने आदर्शगृह-शीशे के महल में प्रवेश कर ममकार कारमती जढा ।'
की मति का परित्याग कर दिया।' उक्त केनचित् तपस्विना-राजन् ! अहं प्रासादे किसी एक संन्यासी ने राजा से कहा-राजन् ! मैं महल में वसामि, तव मस्तिष्के च प्रासादो वसति । तात्पर्यमिदम् रह रहा हूं किन्तु तुम्हारे मस्तिष्क में महल है । इसका तात्पर्य है-यावत बुद्धिगतः परिग्रहो न परित्यक्तो भवति तावत् जब तक बुद्धिगत परिग्रह नहीं छूटता तब तक पदार्थगत परिग्रह पदार्थगतः परिग्रहो न परित्यक्तः स्यात् । तेन पूर्व परित्यक्त नहीं होता। इसलिए सबसे पहले चित्त का परिष्कार करना चित्तस्य परिष्कारः करणीयः ।।
चाहिए।
हो जाते हैं, मावश्यकता-भर बचते हैं । साथ-साथ कर्म से होने वाले कर्म-बन्ध भी उपशांत हो जाते .
१. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ९१ : परिष्णा कम्मोवसंति
त्ति वा एगट्ठा। (ख) मनुष्य कर्म करता है। कर्म का अपने आप में कोई
उद्देश्य नहीं है । वह उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है । जीवन की कुछ आवश्यकताएं हैं । कर्म के द्वारा उनकी पूर्ति की जाती है। आवश्यकता की पूत्ति के लिए कर्म करना एक बात है और कर्म के लिए आवश्यकता खोजना दूसरी बात है। मन आसक्ति से भरा होता है, तब मनुष्य कर्म की आवश्यकता उत्पन्न करता है। उससे समस्याओं का विस्तार होता है । अनासक्त व्यक्ति के कर्म उपांत
२. आचारांग चूणि, पृष्ठ ९२ । ३. वही, पृष्ठ ९२ : एवं अण्णेसुवि वयेसु आयोज्ज ।
अस्याधारेण एवं रचितं स्यात्जे पाणाइवायमति जहाति, से जहाति पाणाइवायं । जे मुसावायमति जहाति, से जहाति मुसावायं । जे अविन्नावाणमति जहाति, से जहाति अदिन्नादाणं । जे मबंभवेरमति जहाति, से जहाति अबंभोरं।
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