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आचारांगभाष्यम
१६५. एस ओघंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरते, वियाहिते ति बेमि ।
सं०-एष ओषन्तरः मुनिः तीर्ण: मुक्तः विरतः व्याहृतः इति ब्रवीमि । यह जन्म-मृत्यु के प्रवाह को तैरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् १६५-एष प्रस्तुतालापकवर्णितो' मुनिः १६०-१६४ सूत्रों में वर्णित अनगार ओघंतर, तीर्ण, मुक्त और ओघंतरः तीर्णः मुक्तः विरत: व्याहृतः भवति-इति विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूं। ब्रवीमि।
कर्मजनितसंस्कारस्य संसारस्य वा ओघं-प्रवाहं कर्म-जनित संस्कारों या संसार के ओघ–प्रवाह को तैरने वाला तरति-तस्य पारं प्राप्नोतीति ओघंतरः ।
अर्थात् पार पाने वाला ओघंतर कहलाता है।
१६६. दुव्वसु मुणी अणाणाए।
सं०-दुर्वसुः मुनिः अनाज्ञायाम् । माशा का पालन नहीं करने वाला मुनि बरित होता है।
भाष्यम् १६६-स मुनिः दुर्वसुः भवति यस्तीर्थकरस्य तीर्थकर की आज्ञा का पालन नहीं करने वाला मुनि संयम-धन अनाज्ञायां वर्तते। अरतिरत्योः असहनं, शब्दस्पर्श- से दरिद्र होता है । तीर्थंकर की आज्ञा है कि मुनि असंयम में रति और योरधिसहनं, पुदगलविषये मनस्तुष्टे: निवारणं, कर्म- संयम में अरति को सहन न करे, शब्द और स्पर्श को सहन करे, शरीरस्य धुननं, प्रान्तरूक्षाहारस्य सेवनं कार्यमिति पोद्गलिक पदार्थों में होने वाली मानसिक तुष्टि का निवारण करे, तीर्थंकरस्य आज्ञा। आज्ञा एव मुनेर्वसु-विभवः । य कर्मशरीर को धुन डाले, प्रान्त और रूक्ष आहार का सेवन करे । आज्ञां अतिक्रम्य वर्तते स दुर्वसुः-संयमसाधनायां तीर्थंकर की आज्ञा ही मुनि का वसु-वैभव है। जो आज्ञा का दरिद्रो जायते। अनाज्ञायां वर्तनस्य आन्तरिको अतिक्रमण करता है वह दुर्वसु अर्थात् संयम की साधना में दरिद्र होता हेतरस्ति अतीतकालभावितकर्मोदयः, बाह्यं कारणमस्ति है। अनाज्ञा में प्रवृत्त होने का आंतरिक कारण है-अतीतकालीन कर्मों परिस्थितिः।
का उदय और बाह्य कारण है-परिस्थिति ।
१६७. तुच्छए गिलाइ वत्तए।
सं०-तुच्छकः ग्लायति वक्तुम् । साधना-शन्य पुरुष साधना-पथ का निरूपण करने में ग्लानि का अनुभव करता है।
भाष्यम् १६७-विभवहीनः द्रव्यतः तुच्छो भवति । जो वैभवहीन है वह द्रव्यतः तुच्छ होता है और जो अनाज्ञा में अनाज्ञायां वर्तमानः भावतः तुच्छो भवति। तेन स प्रवृत्त है वह भावतः तुच्छ होता है । इसलिए वह यथार्थ-सत्य कहने में यथार्थ वक्तुं ग्लायति । चरित्रहीनो न सत्यं वक्तीति ग्लानि का अनुभव करता है। 'चरित्रहीन व्यक्ति यथार्थ नहीं बोलता'ध्रुवं सत्यम् । स पूजासत्कारादिनिमित्तं शुद्ध मार्ग यह ध्रुव सत्य है । वह पूजा और सत्कार आदि की आकांक्षा के वशीप्ररूपयितुं ग्लायति । यदि स मूलगुणतुच्छः तदा मूलगुणान् भूत होकर शुद्ध मार्ग की प्ररूपणा करने में ग्लानि का अनुभव करता प्ररूपयित ग्लायति । यदि उत्तरगुणतुच्छः तदा उत्तर- है। यदि वह मूलगुणों-महाव्रत आदि की आराधना में कमजोर है तो गुणविषये अन्यथा प्ररूपणां करोति । एष तुच्छभावः वह मूलगुणों की प्ररूपणा करने में ग्लानि का अनुभव करता है और
सम्यक्त्वदर्शी किया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके सामने मूल पाठ 'समत्तसिणो' रहा है। यहां समत्वदर्शी अधिक संगत लगता है, क्योंकि समत्वदर्शी ही मौरस आहार का समभाव से सेवन कर सकता है।
दशवकालिक (१९७) के निम्नलिखित पप से इसकी पुणि होती है
'तित्तगं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं था। एय लद्धमन्नट्ठपउत्तं. महुघयं व भुजेज्ज संजए॥'
-गृहस्थ के लिए बना हुआ तीता (तिक्त) या कड़वा, कसैला या खट्टा, मीठा या नमकीन जो भी आहार उपलब्ध
हो उसे संयमी मुनि मधुप्त की भांति खाए। १. मालापकसूत्राणि-मायारो २०१६०-१६४॥
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