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अ० २. लोकविचय, उ० ५. सूत्र ११०
७. स समयज्ञो भवति समयः सिद्धान्तः स भिक्षुः आत्मपरतदुभयसमयं जानाति असमयज्ञः न दातु प्रश्नान् समाधातुमर्हति ।
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८. स भावज्ञो भवति - दातुः प्रियमप्रियं वा भावं जानाति ।
९. स परिग्रहं अममीकुर्वन् भवति परिग्रहेआहारादिपदार्थजाते न ममत्वं करोति । '
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१०. स सति काले उत्थायी भवति - आत्मनः पराक्रमकाले उत्थानं करोति कालज्ञपदे भिक्षाकाल संकेतितः, अत्र पराक्रमकालः विवक्षितोऽस्ति कालश बलजपदयोर्ज्ञानं विवक्षितं, अत्र च करणम्' ।
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११. स अप्रतिजो भवति नात्मनः आहारादिकं हात किन्तु सामुदायिकम् ।
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प्रतिज्ञया
चूणों एवं व्याख्यातमस्ति 'अपठिष्णो' णाम अहं एगो उबभुजेहामि अण्णेवि एतं गुरुमादी भोक्खंति पाति वा, या परिणाए गिन्हइ, ण आयवडियाए, तेण अपणो, अहवा अडिण्णायेसु कुलेसु गिण्हइ, ण य एवं परिणं करिता गच्छति जहाँ अमृगकुलाणि गच्छी हामि सो अपडिण्णो, जो विकरणो एमागी सोऽवि नाणा दीनं अट्ठाए गेहति ।'
१. आचारांग चूर्णि पृष्ठ ७९: परिग्गहो नाम अतिरिक्तं संजमोवकरणातो जं भंडयं, भणितं च---- -जं जुज्जती उवगारे उवगरणं तंसि होति उवगरणं, इह तु आहाराधिकारे वट्टमाणे जत्तियं अणेस रुचि बच्वं तं संजमस्स उधातोतिका निहि पछि भवतित्ति, एसजिि अतिमत्ताए ण घित्तव्वं, मत्ताजुसंपि ण एतं मय गुरुमाईणं एतं ।
२. (क) चूवृत्तीच पुनवक्तिप्रस्नः एवं चचितोऽस्ति सति य उट्ठाण - कम्म-बल-वीरिय- पुरिसगार परक्कमे आह-जति उट्ठाणबलाण एगट्ठा तं तेण बलग्रहणा उट्ठाणग्रहणाय पुणरुतं एसणिज्जंति, भण्णति--अव्विरीयकारणा ण पुणरुतं, तत्थ नाणं इहं करणं, कालो बलं खित्तं अवि
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जाता ) । वह इन्द्रियों को अपने-अपने विषय में नियोजित करता है । गुप्त स्थानों तथा आभूषणों को घूर कर नहीं देखता, चिरकाल तक नहीं देखता ।
७. वह भिक्षु समयज्ञ होता है। समय का अर्थ है सिद्धान्त । स्वयं के दूसरों के तथा दोनों के सिद्धान्तों का जानकर होता
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वह
है । जो असमयज्ञ होता है वह दान देने वाले के प्रश्नों का समाधान करने में समर्थ नहीं होता।
८. वह भिक्षु भावज्ञ होता है वह दाता के प्रिय और अप्रिय भावों को जानने वाला होता है।
९. वह भिक्षु परिग्रह में 'मेरापन नहीं रखता अर्थात् परिग्रहआहार आदि पदार्थों में ममत्व नहीं करता ।
१०. वह भिक्षु कालोत्थायी होता है- वह उपयुक्त काल में उपयुक्त पराक्रम करता है। यह अपने पराक्रम काल में उत्थानपुरुषार्थ करता है। 'काम' पद में मिक्षाकाल का संकेत दिया गया है। यहां पराक्रम काल विवक्षित है। 'कालज्ञ' और बलज्ञ'- इन दो पदों में ज्ञान की विवक्षा है ( भिक्षु को काल का तथा बल का ज्ञान होना चाहिए), यहां करण अर्थात् क्रियान्विति विवक्षित है। (अर्थात् भिक्षु को काल जानकर उपयुक्त पराक्रम करना चाहिए ) ।
११. वह भिक्षु प्रति होता है वह केवल अपने लिए ही आहार आदि नहीं लेता, वह सामुदायिक - सभी के लिए आहार लाता है।
चूर्णि में इसकी व्याख्या इस प्रकार है-वह भिक्षु इस प्रतिज्ञा से बाहार आदि ग्रहण करता है कि मैं भी भोजन करूंगा और गुरु आदि अन्य मुनिजन भी इसको ग्रहण करेंगे। वह केवल अपने उद्देश्य से ही ग्रहण नहीं करता, इसलिए वह अप्रतिज्ञ होता है । अथवा वह अप्रतिज्ञात कुलों से भिक्षा ग्रहण करता है। वह ऐसा संकल्प लेकर नहीं जाता कि में अमुक-अमुक कुलों में ही भिक्षा के लिए जाऊंगा। वह अप्रतिश होता है । जो अकेला होता है वह भी ज्ञान आदि के प्रयोजन से भिक्षा ग्रहण करता है ।
वरीयं परियव्यं तेन च पुणरतं (भूणि, पृष्ठ ७९) ।
'काला ट्ठाई' यस्मिन् काले कर्तव्यं तत्तस्मिन्नेवानुष्ठातुं शीलमस्येति कालानुष्ठायी कालानतिपातकर्तव्यद्यलो, ननु चास्यार्थस्य 'से भिक्खू कालन्ने' इत्यनेनंव गतार्थत्वात् किमर्थं पुनरभिधीयते इति ? नंष दोषः, तत्र हि ज्ञपरिज्ञेव केवलाऽभिहिता, कर्तव्यका जानाति इह पुनरासेवना परिज्ञा कर्त्तव्यका कार्यं विधत्त इति । ( वृत्ति, पत्र १२० ) (ख) आचारांग गि, पृष्ठ ८अ पिडीत वा जाब कालेऽणुकाए अपडिष्णो' एतेसि एमाहियारिए हि हि एक्कार विडेओ माओ
३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७९-८० ।
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