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आचारांगभाष्यम् १३०. अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि, पासति पुढोवि सवंताई।
सं०-अन्तः अन्तः पूतिदेहान्तराणि पश्यति पृथगपि स्रवन्ति । पुरुष इस अशुचि शरीर के भीतर से भीतर पहुंच कर शरीर-धातुओं को देखता है और मरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है ।
भाष्यम् १३०-साधक : शरीरस्य अशुचित्वानुप्रेक्षां साधक शरीर की अनुप्रेक्षा करते-करते जैसे-जैसे शरीर के कुर्वन अंतो अंतो-यथा यथा अन्तः प्रविशति, तथा भीतर प्रवेश करता है, वैसे-वैसे वह अशुचिमय शरीर में झरते हुए तथा पूतिदेहस्य अन्तराणि-विवराणि पृथक् पृथक् विविध स्रोतों को देखता है। वे छिद्र पुरुष में नौ और स्त्री में बारह स्रवन्ति पश्यति । तानि च पुरुषे नव भवन्ति, स्त्रीषु च होते हैं। उन छिद्रों की अशुचिता को देखकर देहासक्ति से छुटकारा द्वादश । तेषां अशुचित्वदर्शनेन देहासक्तेविमुक्तिः ततश्च मिलता है और फिर कामासक्ति क्षीण होती जाती है। कामासक्तिः क्षीणा भवति। वृत्तौ अशुच्यनुप्रेक्षालम्बनभूते द्वे गाथे उद्घते स्त:'- वृत्तिकार ने अशुचि अनुप्रेक्षा की आलंबनभूत दो गाथाएं
उद्धृत की हैंमंसट्ठी-हिर-हारवणद्ध-कललमय-मेय-मज्जासु।
यह शरीर मांस, अस्थि, रुधिर युक्त तथा स्नायुओं से बंधा पुण्णंमि चम्मकोसे, दुग्गंधे असुइबीमच्छे ।
हुआ, कललमय, मेद और मज्जा से परिपूर्ण एक चर्मकोश है। यह
दुर्गन्धमय तथा अशुचि होने के कारण बीभत्स है। संचारिम-जंत-गलंत-वच्च-मुत्तंत-सेअ-पुण्णंमि ।
यह शरीररूपी यंत्र निरंतर संचलित और सबित होने वाले देहे हुज्जा कि रागकारणं असुइहेउम्मि?
मल-मूत्र तथा प्रस्वेद से युक्त है। इस अशुचिरूप देह में राग या
आसक्ति का क्या कारण हो सकता है ? १३१. पंडिए पडिलेहाए।
सं०-पंडितः प्रतिलिखेत् । पंडित पुरुष काम के विपाक को देखे।
भाष्यम् १३१-पंडितः शरीरस्य असारतां अशुचित्वं तत्त्वज्ञ पुरुष शरीर की असारता, अशुचिता तथा कामभोगों के कामभोगस्य विपाकांश्च अनुप्रेक्ष्य प्रतिलेखनां कुर्यात्- परिणामों की अनुप्रेक्षा कर प्रतिलेखना करे-उस अनुप्रेक्षा का हृदय से तां अनुप्रेक्षां हृदयेन स्पृशेत्, तस्याः धारणां स्वमस्तिष्के स्पर्श करे अथवा उस अनुप्रेक्षा की धारणा को अपने मस्तिष्क में उकेर उत्कीर्णां वा कुर्यात् ।
प्रतिलेखनापूर्वकं ये कामाः परित्यक्ताः, न ते प्रतिलेखनापूर्वक अर्थात् हृदय की अनुभूति पूर्वक जो कामभोग पूनरुपादातव्याः इति विचारविचयात्मकमालम्बनम् । परित्यक्त होते हैं उनका पुनः ग्रहण नहीं होना चाहिए। यह विचार
विचयात्मक मालम्बन है। १३२. से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी।।
सं०-स मतिमान् परिज्ञाय मा च खलु लाला प्रत्याशीः । वह मतिमान् पुरुष काम को जानकर और त्याग कर लार को न चाटे ।
भाष्यम् १३२-स मतिमान् द्विविधायाः परिज्ञायाः उस मतिमान् पुरुष ने दोनों प्रकार की परिज्ञाओं का प्रयोग प्रयोगं कृत्वा कामान् परिहृतवान् । परिज्ञा-विवेकः। कर कामभोगों को छोड़ा है। परिज्ञा का अर्थ है-विवेक । परिज्ञा दो सा द्विविधा-ज्ञ-परिज्ञा प्रत्याख्यान-परिज्ञा च। ज्ञ- प्रकार की होती है । ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिज्ञा । ज्ञ-परिज्ञा से परिज्ञया कामानां विपाकान् ज्ञात्वा प्रत्याख्यान-परिज्ञया कामभोगों के विपाकों को जानकर, प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उसने उनका च तेन ते परिहृताः । तस्य कृते उपदेशसूत्रमिदम्-'मा परित्याग किया है। उसके लिए यह उपदेश-सूत्र है 'तुम लार को
१. आचारांग वृत्ति, पत्र १२४ ।
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