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आचारांगमाष्यम्
आयतनं द्विविधं भवति-प्रशस्तं अप्रशस्तञ्च । प्रशस्तं अप्रशस्त । ज्ञान आदि प्रशस्त आयतन हैं । विषय और स्त्रियां अप्रशस्त ज्ञानादि, अप्रशस्तं विषया: स्त्रियश्च । यः प्रशस्तभावा- आयतन हैं । जो प्रशस्त भाव के मायतन से शून्य होता है वह अनायतन यतनशून्यो भवति स अनायतनान्यपि आयतनानि करोति। को भी आयतन बना देता है। स्त्रियां वस्तुतः भोग की आयतन नहीं स्त्रियो न सन्ति वस्तुतो भोगायतनानि ।।
हैं, भोग-सामग्री नहीं हैं।
१२. से दुक्खाए मोहाए माराए णरगाए णरग-तिरिक्खाए ।
सं०---तद् दु:खाय मोहाय माराय नरकाय नरकतिरश्चे। यह उसके दुःख, मोह, मृत्यु, नरक और तियंच गति के लिए होता है।
भाष्यम् ९२-एतद् अनायतने आयतनाभिमतं अनायतन को आयतन मानना उसके दुःख, मोह, मृत्यु, नरक तस्य दु:खाय, मोहाय, माराय, नरकाय, नरकतिर्यग्गत्य और तिथंच गति के लिए होता है। च भवति ।
कार्याकार्यस्य अविवेको मोहः । विषयासक्तो करणीय और अकरणीय का अविवेक मोह है। विषयों में कार्यमकार्यं न जानाति ।
आसक्त मनुष्य करणीय और अकरणीय को नहीं जानता। विषयेष अतिप्रसक्तः इष्टां स्त्रियमलभमानः विषयों में अति आसक्त मनुष्य अपनी मनोगत स्त्री के प्राप्त न आत्महत्यामपि करोति । तेन विषयासक्तिमत्यूरेव होने पर आत्महत्या भी कर लेता है । इसलिए विषयों की आसक्ति भवति ।
मृत्यु ही है। विषयासक्तो मनुष्यो नरके उत्पद्यते । तत उद्- विषयासक्त मनुष्य नरक में उत्पन्न होता है। वहां से निकल वर्तनं कृत्वा तिर्यग्गतावत्पद्यते । एवं नरकतिर्यग्गतो कर वह तिर्यच गति में जन्म लेता है । इस प्रकार वह बार-बार नरक पुनर्पनरनुपरिवर्तमानो भवति ।
और तिथंच गति में परिभ्रमण करता रहता है।
९३. सततं मूढे धम्म णाभिजाणइ ।
सं०-सततं मूढः धर्म नाभिजानाति । सतत मूढ मनुष्य धर्म को नहीं जानता।
भाष्यम् ९३-नानागतिषु जन्ममरणचक्रमनुभवन् विभिन्न गतियों में जन्म-मरण करता हुआ मनुष्य निरंतर सततं मढ:---मुच्छौं परिगतः पुरुषः धर्म नाभिजानाति । मूच्छित बना रहता है। मूच्छित मनुष्य धर्म को नहीं जान पातामा मचायां न धर्माभिज्ञानम । धर्माभिज्ञानं विना न मूच्छों- में धर्म की पहचान नहीं होती। धर्म को जाने बिना मूर्छा का परिहार परिहारः । इदानीं कथञ्चिद् मूभिङ्गो जातः । तेन नहीं होता। वर्तमान जन्म में कुछ मूर्छा टूटी है, इसीलिए अब अप्रमत्त अप्रमत्तेन भाव्यमित्युपदेश:
रहना चाहिए। इस उपदेश के संदर्भ में
१४. उदाह वीरे----अप्पमादो महामोहे।
सं०-उदाह वीरः-अप्रमादः महामोहे । महावीर ने कहा-साधक विषय-विकारों में प्रमत्त न हो।
भाष्यम् ९४-वीरः तीर्थंकरः महावीरो वा वीर अर्थात् तीर्थकर अथवा महावीर ने कहा-महामोह में उदाहृतवान्-महामोहे अप्रमादः कार्यः ।। __ प्रमत्त मत बनो। ___ महामोहः-स्त्री-पु-नपुंसक-वेदाः विषयाभिलाषो महामोह का अर्थ है-(१) स्त्रीवेद-स्त्री के प्रति होने वाला बा।
विकार, (२) पुरुषवेद-पुरुष के प्रति होने वाला विकार, (३) नपुंसकवेद-नपुंसक के प्रलि होने वाला विकार । अथवा महामोह का अर्थ है-विषय-सेवन की अभिलाषा।
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