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अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ५. सू०६०-६५ ६३. जे गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे। सं०-यः गुणः स आवतः, य आवर्नः स गुणः । जो विषय है वह आवत है। जो आवर्त है वह विषय है।
भाष्यम् ९३-यो वनस्पतिकायसमारम्भादूपरतो न जो वनस्पतिकाय के समारम्भ से उपरत नहीं होता, वह वास्तव भवति, स वस्तुतोऽगारमेवावसतीति अस्मिन्नेवालापके में गृहवासी ही है, यह इसी आलापक के सूत्र ९८ में बतलाया जायेगा । वक्ष्यमाणमस्ति (सूत्र ९८)। स गुणानास्वादमानो गुणेषु वह गुणों का आस्वाद लेता हुआ गुणों में प्रवृत्त होता है- इस स्थापना प्रवर्तत इति स्थापनां स्पष्ट यितुं सूत्रकार: प्रवक्ति- को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-शब्द आदि इन्द्रिय-विषय गुणाः-शब्दादयः इन्द्रियविषयाः । ये गुणास्त गुण हैं। जो गुण हैं वे आवर्त हैं अर्थात् नाना प्रकार के भावों के संक्रमण आवर्ताः-नानाविधभावसंक्रमणहेतवः सन्ति । ते च के हेतु हैं । वे गुण प्रायः वनस्पति के समारम्भ से पैदा होने वाले हैं, प्रायो वनस्पतिसमारम्भजाः, यथा- वीणाभवनपुष्पफल- जैसे वीणा, भवन, फूल, फल, तूलिका (रुई से भरा गद्दा) आदि। ये तूलिकादयः क्रमशो दृष्टान्ताः ज्ञेयाः ।
क्रमशः इन्द्रिय विषयों के लिए वनस्पति समारम्भ के दृष्टांत हैं। यो वनस्पतिसमारम्भे वर्तते, स गुणे वर्तते । यो गुणे जो वनस्पति के समारम्भ में प्रवृत्ति करता है, वह गुण में वर्तते, स आवर्ते वर्तते। य आवर्ते वर्तते, सोऽगारवासी प्रवृत्ति करता है। जो गुण में प्रवृत्ति करता है, वह आवर्त में प्रवृत्ति एव, नानगारो भवितुमर्हति ।
करता है। जो आवर्त में प्रवृत्ति करता है वह गृहस्थ ही है, अनगार
नहीं हो सकता। अस्य सूत्रस्य संरचना गत-प्रत्यागतशैल्या वर्तते । इस सूत्र की रचना गत-प्रत्यागत शैली में है। १४. उड्ढं अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाइं पासति, सुणमाणे सद्दाइं सुणेति ।
सं०-ऊर्ध्वं अवः तिर्यक् प्राचीनं पश्यन रूपाणि पश्यति, शृण्वन् शब्दान शृणोति । ऊंचे, नीचे और तिरछे स्थानों में तथा पूर्व आदि दिशाओं में देखने वाला रूपों को देखता है, सुनने वाला शब्दों को सुनता है।
भाष्यम ९४.-'गूणाः क्व वर्तन्ते' इति जिज्ञासायां 'गुण कहां होते हैं ?' इस जिज्ञासा का यह समाधान दिया कृतं समाधानमिदम्-दिशां विहाय नैतन्निरूपयितुं गया है-दिशा को छोड़कर इसका निरूपण नहीं किया जा सकता, शक्यमिति सूत्रकारो वक्ति-सर्वासु दिशासु गुणा इसलिए सूत्रकार कहते हैं-सब दिशाओं में गुण होते हैं। मनुष्य ऊपर वर्तन्ते। मनुष्य ऊवं पश्यन्नपि रूपाणि पश्यति, देखता हुआ भी रूपों को देखता है, सुनता हुआ शब्दों को सुनता है। शृण्वंश्च शब्दान् शृणोति । एवं अधस्तिर्यमाच्यादि- इसी प्रकार नीची, तिरछी और पूर्व आदि दिशाओं में भी रूपों को दिशास्वपि रूपाणि पश्यति, शब्दांश्च शृणोति । इन्द्रिय- देखता है और शब्दों को सुनता है। इन्द्रिय-विषयों में रूप और शब्द विषयेषु रूपशब्दौ एव मुख्यौ स्तः । प्राधान्येन ही मुख्य हैं । साहित्य में भी मुख्यतः दृश्य एवं श्रव्य-काव्यों को ही साहित्येऽपि दृश्यथव्यकाव्ययोरेव स्वीकरणमस्ति। स्वीकार किया गया है।
६५. उड्ढं अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु आवि ।
सं०-ऊर्ध्वं अधः तिर्यक प्राचीनं मूर्च्छन् रूपेषु मूर्च्छति, शब्देषु चापि । ऊंचे, नीचे और तिरछे स्थानों में तथा पूर्व आदि दिशाओं में विद्यमान वस्तुओं में मूच्छित होने वाला रूपों में मूच्छित होता है, शब्दों में मूच्छित होता है।
भाष्यम् ९५-पूर्वसूत्रे इन्द्रियविषयग्रहणमात्रमेव प्रति- पूर्वसूत्र में इन्द्रियविषयों का ग्रहणमात्र प्रतिपादित किया गया पादितम् । प्रस्तुतसूत्रे तज्जनितां मूच्छीँ प्रतिपादयति है। प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार उससे होने वाली मूर्छा का प्रतिपादन सूत्रकारः । इन्द्रियविषयग्रहणमात्रं नास्ति दोषावहं, किन्तु करते हैं। इन्द्रिय-विषयों का ग्रहणमात्र दोषयुक्त नहीं है, किन्तु उसमें तस्मिन् चित्तं मुह्यति, तदस्ति सदोषम् । अत एवोक्त- चित्त मूढ बनता है, वह दोषपूर्ण है। इसीलिए कहा गया है- मूच्छित मस्ति-मूच्छितचित्तो मनुष्य ऊर्वादिदिशासु रूपेषु चित्त वाला मनुष्य ऊर्ध्व आदि दिशाओं में रूपों और शब्दों में मूच्छित मूर्च्छति शब्देषु चापि।
होता है।
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