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अ० १ शस्त्रपरिज्ञा, उ० ७.
१. वायुमुत्पादयितारो चामर पत्र - चेलकर्णादयः ।
सं० -- यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति ।
वह नाना प्रकार के शस्त्रों से वायु सम्बन्धी क्रिया में व्यापृत होकर वायुकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन वायुकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों की भी हिंसा करता है । भाष्यम् १५२ – निर्युक्ता विमानि वायुकायशस्त्राणि
नियुक्ति में वायुकाय के ये शस्त्र प्रतिपादित हैं
प्रतिपादितानि
सूत्र १४-१५५
२. अभिधारणा - प्रस्विन्नो वातागमनमार्गे साऽभिधारणा ।
३. चन्दनोशीरादीनां गन्धाः । ४. अग्निः - तस्य ज्वाला प्रतापश्च ।
५. स्वकायशस्त्रम - प्रतिपक्षवातः गीत उष्णो वा । पञ्चापि स्थावरकायाः परिणता अपरिणता अपि भवन्तीति स्थानांगे निर्दिष्टमस्ति । तत्र पञ्चविधः अचित्तवायुरपि प्रतिपादितोस्ति'
१. कान्तःपादादिना समुत्थितो वायु आक्रान्तः । २. मातः दूत्यादिना संप्रेरितो वायुः ध्मातः । ३. पीडितः जलार्द्रवस्त्रादीनां निष्पीडनेन
व्यजन तालवृन्त-सूर्य
यद् बहिरवतिष्ठते
समुत्थितो वायुः पीडितः ।
गतः ।
४. शरीरानुगतः उद्गारोच्छ्वासादि शरीरानु५. सम्मूमिः व्यजनादिजन्यः ।
निशीयभाष्ये चूर्णी च वायुकायस्य अन्योन्य शस्त्रत्वं प्रतिपादितमस्ति । वृहत्कल्पभाष्ये क्षेत्रकालापेक्षया वायोः सचित्ताचित्तत्वं विवृतमस्ति । इत्यं शस्त्रस्य सचित्तापित्तयोश्च विषये यह व्याख्यातमस्ति तच्च साध्यवसायमव सातव्यम् ।
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१५३. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया ।
सं० – तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता ।
इस विषय में भगवान ने परिक्षा (विवेक) का निरूपण किया है।
१५४. इमस्स चैव जीवियस्स, परिवंदण माणण-पूषणाए, जाई- मरण-मोवणाए, दुक्खपडिघायहेडं ।
[सं०] अस्यैव जीविताय परिवन्दन-मानन-पूजनाय जाति-मरण-मोचनाय दुःखप्रतिघात हेतुम् ।
वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए दुःख-प्रतिकार के लिए
१. आचारांग नियुक्ति, गाया १७० :
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१. वायु को उत्पन्न करने वाले व्यजन - पंखा, तालवृन्तताड़ का पंखा, खाज, चामर, पत्र तथा वस्त्र का छोर आदि ।
२. अभिधारणा - पसीने से लथपथ व्यक्ति का हवा के आगमन के मार्ग पर बैठना या खड़े रहना ।
३. चन्दन, खस आदि गंधद्रव्यों की सुगंध ।
४. अग्नि उसकी ज्वाला तथा गर्मी ।
५. स्वकायशस्त्र - ठंडा या गर्म प्रतिपक्ष-वायु ।
स्थानांग के अनुसार पांचों स्थावर जीवनिकाय परिणत और अपरिचत दोनों प्रकार के होते हैं। उसी बागम में अचित वायु के पांच प्रकार प्रतिपादित हैं-
१. आक्रान्त - पैरों को पीट-पीट कर चलने से उत्पन्न वायु । २. ध्मात धौंकनी भादि से उत्पन्न वायु |
३. पीडित – गीले कपड़ों के निचोड़ने आदि से उत्पन्न वायु ।
विणे व तालव सुप्यसियपत्त वेलकरणे व अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउ सत्थाई ॥ १, ठाणं २०१३३ १३७।
२.
३. वही, ठाणं ५।१८३ | पंचविधा अचित्ता वाउकाइया
४. शरीरात डकार, उच्छ्वास आदि ।
५. संमूच्छिम -- पंखा झलने आदि से उत्पन्न वायु ।
निशीथ भाष्य तथा चूर्णि में एक वायु दूसरी वायु का शस्त्र है ऐसा प्रतिपादन है। कल्पभाग्य में क्षेत्र और काल की अपेक्षा से पति अति वायु का विवेचन प्राप्त होता है। इस प्रकार शस्त्र के विषय में तथा सचित्त, अति के विषय में बहुत विवेचन हुआ है। उसकी जानकारी धैर्य और प्रयत्न साध्य है ।
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१५५. से सयमेव वाउ-सत्थं समारंभति, अण्णेहि वा वाउ-सत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वाउ-सत्थं समारंभंते समणुजाणइ ।
पण्णत्ता, तं जहा- अक्कंते, घंते, पीलिए, सरीराणुगते, संमुद्दिमे ।
४. निशीथ भाष्य चूर्णि भाग १, पृष्ठ ८५, ८६ ।
५. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ९७३ ९८० ।
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