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आचारांगभाष्यम
१४८. एयं तुलमण्णेसि ।
सं०-एतां तुला अन्विष्य । इस तुला का अन्वेषण कर ।
है।
भाष्यम् १४८-एतां पूर्वसूत्रप्रतिपादितां तुलामन्वेषय। पूर्वसूत्र में प्रतिपादित इस तुला का अन्वेषण कर---जैसे यथा मम दुःखं प्रियं नास्ति तथाऽन्येषामपि सर्वेषां मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे अन्य सभी जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं जीवानां दुःखं प्रियं नास्ति, इत्यात्मतुलाबोधोऽपि है। यह आत्मतुला का अवबोध भी हिंसा-विरति का मालम्बन बनता हिंसाविरतेरालम्बनं भवति । १४९. इह संतिगया दविया, णावखंति वीजिउं।'
सं०-इह शान्तिगताः द्रव्याः नावकांक्षन्ति वीजितुम् । इस निर्ग्रन्थ-शासन में दीक्षित मुनि शांत और संयम के योग्य होते हैं, इसलिए वे बीजन-हवा लेने की इच्छा नहीं करते।
भाष्यम् १४९-वीजनस्य निदर्शनपूर्वकं वायुकायिक- सूत्रकार वीजन के निदर्शन से वायुकायिक जीवों की हिंसा के जीवानां हिंसायाः प्रसंगं तन्निवारणञ्च प्रतिपादयति सूत्र- प्रसंग और उसके निवारण को प्रतिपादित करते हैं। जिन शासन में कारः । इह-जिनशासने प्रवजिता मुनयः वीजितुं नेच्छ- प्रव्रजित मुनि वीजन (पंखे से हवा लेने) की इच्छा नहीं करते । उसके न्ति । तस्य हेतुद्वयम्-ते भवन्ति शान्ति प्राप्ता द्रव्याश्च। दो हेतु हैं-दे शान्ति को प्राप्त और द्रव्य-संयम के योग्य होते हैं।
शान्ति:-कषायोपशमः । शान्ति प्राप्ताः-शांति- शान्ति का अर्थ है-कषाय का उपशमन । शांति को प्राप्त गताः ।
मुनि शान्तिगत कहलाते हैं। द्रव्याः-योग्याः संयमस्य । रागद्वेषमुक्ता देहासक्ते- द्रव्य का अर्थ है-संयम के योग्य । रागद्वेष से मुक्त अथवा मक्ता वा। अथवा द्रविताः करुणान्तिःकरणाः। देहासक्ति से मुक्त। अथवा जिनका अन्तःकरण करुणा से भीगा हुआ है, एतादशा निदाघेऽपि शान्तिमनुभवन्ति, अतस्ते नोत्सहन्ते वे द्रवित या द्रव्य कहलाते हैं। इस प्रकार के मुनि गर्मी में भी शान्ति वायुकायिकजीवानां प्राणव्यपरोपणं कृत्वा शान्तिम- का अनुभव करते हैं। इसलिए वे (वीजन मादि से) वायुकायिक वाप्तुम् ।
जीवों की हिंसा कर शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्साहित नहीं होते। १५०. लज्जमाणा पुढो पास ।
सं०-सज्जमानान पृथक् पश्य ।
तू देख, प्रत्येक संयमी साधक हिंसा से विरत हो संयम का जीवन जी रहा है। १५१. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
सं0-अनगारा: स्म इति एके प्रवदन्तः ।
और तू देख, कुछ साधक 'हम गृहत्यागी हैं'—यह निरूपित करते हुए भी गृहवासी जैसा आचरण करते हैं--वायुकायिक जीवों की हिंसा करते है।
भाष्यम् १५०-१५१-पूर्ववत् १७-१८ सूत्रे द्रष्टव्ये। पूर्ववत् देखें-सूत्र १७-१८। १५२. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सत्थं समारंभमाणे अण्णे वणेगरूवे पाणे विहिंसति । १. अन्वेषय इत्यर्थः।
की समानता । (सूत्र १४८) २. अहिंसा के तीन आलम्बन है
जैसे अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे (१) आतंक-दर्शन-हिंसा से होने वाले आतंक का
ही दूसरों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। जैसे दर्शन ' (सूत्र १४६)
दूसरों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही (२) अहित-बोध-हिंसा से होने वाले अहित का बोध । (सूत्र १४७)
अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है। (३) आत्म-तुला--सब जीवों में सुख-दुःख के अनुभव ३. तुलना-दसवेआलियं, ६।३७ ।
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