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आचारांगभाष्यम् उच्चगोत्रः-उच्च-सत्कारसम्मानार्ह गोत्रं यस्य स उच्चगोत्र-उच्च अर्थात् सत्कार और सम्मान के योग्य गोत्र उच्चगोत्रः । अतो विपरीतः नीचगोत्रः।
है जिसका, वह उच्चगोत्र है। इसके विपरीत नीचगोत्र है। एतत् सूत्रं द्रव्याथिकनयेन व्याख्येयम् । द्रव्याथिक- इस सूत्र की व्याख्या द्रव्याथिक नय से करनी चाहिए। नयेन निश्चय नयेन वा नास्ति कश्चिदात्मा हीनोऽति- द्रव्यार्थिक नय अथवा निश्चय नय से कोई भी आत्मा हीन या अति. रिक्तो वा । पर्यायाथिकनयेन प्राणिनः हीना अतिरिक्ता रिक्त नहीं है। पर्यायार्थिक नय से प्राणी हीन या अतिरिक्त भी होते वापि भवन्ति । ५०. इति संखाय के गोयावादी? के माणावादी ? कसि वा एगे गिज्झे?
सं०-इति संख्याय को गोत्रवादी ? को मानवादी ? कस्मिन् वाए कः गृध्येत् ? वास्तविकता को जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा? और कौन किसी एक स्थान में आसक्त होगा?
भाष्यम ५०-मया अन्यैरपि च जीवैरनेकवारं 'मैंने और दूसरे जीवों ने भी अनेक बार उच्चता और हीनता उच्चत्वं हीनत्वं वा अनुभूतम, इतिसंख्याय-ज्ञात्वा को का अनुभव किया है' यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? गोत्रवादी स्यात् ? कश्च मानवादी ? कस्मिन् वा एको कौन मानवादी होगा? और कौन किसी एक स्थान में गृद्ध होगा, गृध्येत्-इच्छां प्रयोजयेत् ?
आसक्त होगा? जाति-कूल-बल-रूप-तप:-श्रुत-लाभैश्वर्यैरुपेतस्य जाति, कुल, बल, रूप, तपस्या, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य से युक्त गोत्रवादो भवति । स्वगुणपरिकल्पनाजनितो मानवादः व्यक्ति के गोत्रवाद होता है और अपने गुणों की परिकल्पना से उत्पन्न भवति । सर्वं अनूभूतपूर्वम् । तेन उच्चत्वलाभे को मानवाद होता है। इन सबका पहले अनुभव किया जा चुका है । विस्मयं कुर्यात् नीचत्वलाभे च उद्वेगं कुर्यात् ? इसलिए कौन व्यक्ति उच्चता के प्राप्त होने पर विस्मय और निम्नता
के प्राप्त होने परउ द्वेग करेगा?
५१. तम्हा पंडिए णो हरिसे, णो कुज्झे।
सं०-तस्मात् पंडितः नो हृष्येत्, नो क्रुध्येत् । इसलिए पंडित पुरुष न हर्षित हो और न कुपित हो ।
भाष्यम ५१-तस्मात् पंडितः समतामनुभवेत । इसलिए पण्डित पुरुष समता का अनुभव करे । उच्चगोत्रउच्चगोत्रस्य-सम्मानादीनां लाभे सति नो हृष्येत्, सम्मान आदि के प्राप्त होने पर हर्ष न करे और नीचगोत्र-अपमान नीचगोत्रस्य-अवमाननादीनां प्राप्तौ सत्यां न क्रुध्येत् । आदि के प्राप्त होने पर क्रोध न करे। ५२. भूएहि जाण पडिलेह सातं ।
सं0--भूतेषु जानीहि प्रतिलिख सातम् । तू जीवों में होने वाले कर्म-बन्ध और कर्म-विपाक को जान और कर्म-क्षय की समीक्षा कर ।
भाष्यम ५२-नीचगोत्रस्यानुभवोऽस्ति दुःखम् । कि नीचगोत्र का अनुभव दुःख है। दुःख का हेतु क्या है-इस हेतूकं दुःखमितिगवेषणायां सर्वप्रथमं जीवाभिगमः गवेषणा में सबसे पहले जीवों का ज्ञान करना चाहिए और उसके बाद करणीयः। ततश्च स कथं कर्म बध्नाति कथञ्च कर्मणो जीव किस प्रकार कर्म का बंधन करता है और कर्म का विपाक कैसे विपाको जायते इत्यभिगमः कार्यः ।
होता है, यह जानना चाहिए। सातं-क्षयः। कर्मणः क्षयः कथं स्याद् इति सात का अर्थ है---क्षय । कर्म का क्षय कैसे हो-यह अन्वेषण अन्वेष्टव्यम् ।
करना चाहिए। चूणौ वृत्तौ च 'सातं' सुखमित्यपि लभ्यते ।'
चूणि और वृत्ति में 'सात' का अर्थ सुख भी मिलता है। १. 'शात' 'सातं'-एते द्वे अपि पदे क्षयार्थे उपलभ्येते। २. (क) आचारांग चूणि, पृ० ६४ : पडिलेहिहि-गवेसाहि आप्टे, सातः-destroyed | शातः-cut down |
सातं-सहं, तम्यिवक्खतो असातं, तं पडिलेहेहि, कस्स कि
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