________________
अ०२. लोकविचय, उ० ३-४. सू०७४-८१
११३
७७. नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा । तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा ।
सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा। हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।
भाष्यम् ७७ --त्राणम् --क्रिया', चिकित्सा' इत्यर्थः। त्राण का अर्थ है-क्रिया, चिकित्सा। शरण अर्थात् व्याधि का शरणमपि व्याधरुपशम: । केचिज्जना रुग्णमपि पुरुष उपशमन । कुछ लोग रुग्ण व्यक्ति का भी तिरस्कार नहीं करते, फिर न परिवदन्ति, तथापि नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय भी वे तुम्हारे त्राण या शरण के लिए सक्षम नहीं हैं। तुम भी उनके वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा। त्राण या शरण के लिए सक्षम नहीं हो। ७८. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं ।
सं०-ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् । दुःख और सुख अपना-अपना होता है-यह जानकर ।
भाष्यम् ७८ -- अर्थार्जनकामासेवनाभ्यामजितं दुःखं अर्थार्जन और काम के आसेवन से उपार्जित दुःख अपना-अपना प्रत्येकं भवति–कर्तुरेव भवति, न येषां कृते कृतं तेषु होता है---करने वाले का ही होता है । जिनके लिए किया जाता है उनमें संक्रामति । एवं सातमपि प्रत्येकं भवति इति ज्ञात्वा वह संक्रांत नहीं होता। इसी प्रकार सुख भी अपना-अपना होता है, अर्थार्जने कामसेवने च नासक्तिरासेवनीया।
यह जानकर अर्थार्जन और कामसेवन में आसक्ति नहीं करनी चाहिए। ७६. भोगामेव अणुसोयंति।
सं०-भोगानेव अनुशोचन्ति । कुछ मनुष्य भोग के विषय में ही सोचते रहते हैं।
भाष्यम् ७९----कामभोगेभ्यः रोगोत्पत्तिर्भवति. कामभोगों से रोग की उत्पत्ति होती है, अत्राणता और अत्राणता अशरणता च भवति, व्यक्तिगतञ्च सुख-दुःखं अशरणता होती है और सुख-दुःख व्यक्तिगत होता है-यह जानकर भवति इति ज्ञात्वापि केचिन्मनुष्याः भोगान् एव भी कुछ मनुष्य भोगों का ही अनुचितन करते हैं। यह मूर्छा की ही अनुशोचन्ति । इत्यस्ति मूर्छाविलसितम् ।
लीला है। ८०. इहमेगेसि माणवाणं ।
सं०-इहै केषां मा वानाम् । यहां कुछ मनुष्यों के लिए अर्थ ही प्रधान है। भाष्यम् ८० -एकेषां मानवानां 'अर्थो हि सर्वेषां
कुछ लोग 'अर्थ ही सब पुरुषार्थों का मूल है', ऐसा मानते हैं । परुषार्थानां मुलं भवति' इति मतिर्भवति । यथा--- चाणक्य का भी यही मत है-धर्म और काम का मूल अर्थ है। इस अर्थमलौ हि धर्मकामौ इति चाणक्यः । इति चिन्तनेन चिंतन से मनुष्य अर्थ का अर्जन करते हैं। ते अर्थमर्जयन्ति ।
८१. तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा वा बहुगा वा।
सं०-त्रिविधेन यापि तस्य तत्र मात्रा भवति–अल्पा वा बहुका वा । अपने, पराए या दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से उनके पास अर्थ की अल्प या बहुत मात्रा हो जाती है।
१. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७२ : इह रोगा अधिकृता, तत्थ सम्म
रोगिस्स किरियं ताणं। २. आप्टे, क्रिया-Medical Treatment. .
३. आचारांग चूणि, पृष्ठ ७२ : वाहिउवसमो सरणं । ४. कौटलीयार्थशास्त्रम्, १।२।३ : अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org