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आचारांगभाष्यम
५६. से अबुज्झमाणे हतोवहते जाइ-मरणं अणुपरियट्टमाणे।
सं०-स अबुध्यमानः हतोपहतः जातिमरणं अनुपरिवर्तमानः । कर्म-विपाक को नहीं जानता हुआ वह हत और उपहत होता है तथा बार-बार जन्म और मरण करता है।
भाष्यम् ५६--परिग्रहमद, तद्धेतुकां हिंसा, ताभ्यां परिग्रह का मद और परिग्रह के लिए की जाने वाली हिंसाजायमानान् कर्मविपाकांश्च अनवबुध्यमानः स पुरुषः इन दोनों से होने वाले कर्म-विपाकों को नहीं जानता हुआ वह पुरुष हत उपहतश्च भवति पराभवेन रोगादिना वा। स च तिरस्कार या रोग आदि से हत-उपहत होता है । उस प्रकार के कर्म तथाविधं कर्म अर्जयित्वा जन्म मरणञ्च अनुपरिवर्तते। का अर्जन कर वह बार-बार जन्म और मरण करता है। ५७. जीवियं पुढो पियं इहमेगेसि माणवाणं, खेत्त-वत्थु ममायमाणाणं ।
सं०-जीवितं पृथु प्रियं इहैकेषां मानवानां क्षेत्रवास्तु ममायमानानाम् । भूमि और घर में ममत्व रखने वाले कुछ पुरुषों को विपुल जीवन प्रिय होता है ।
भाष्यम् ५७-अस्ति इच्छाया नानात्वम् । एके इच्छा नाना प्रकार की होती है। कुछ मनुष्य केवल वैभव की मानवाः केवलं विभवमेव इच्छन्ति । तादृशं विस्तीर्ण- ही चाह रखते हैं। उनको वैसा विस्तीर्ण वैभवशाली जीवन ही प्रिय विभवमेव जीवनं तेषां प्रियं भवति । ते क्षेत्रे वास्तुनि होता है । वे क्षेत्र और वास्तु में ममत्व रखते हैं । च ममत्वं कुर्वन्ति । पुढो-विस्तीर्णम् ।
पुढो का अर्थ है-विस्तीर्ण । क्षेत्रं-अनाच्छादितभूमिः ।
क्षेत्र का अर्थ है-अनाच्छादित भूमि, खुली भूमि । वास्तु -आच्छादितभूमिः गृहमिति ।
वास्तु का अर्थ है--आच्छादित भूमि अर्थात् घर । ५८. आरतं विरतं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण, इत्थियाओ परिगिज्म तत्थेव रत्ता।
सं०-आरक्तं विरक्त मणिकुंडल सह हिरण्येन स्त्रीः परिगृह्य तत्रैव रक्ताः । वे रंग-बिरंगे वस्त्र तथा मणि, कुण्डल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें ही अनुरक्त हो जाते हैं।
भाष्यम् ५८ --ते आरक्त'--कुसुम्भादिना रक्त, वे आरक्त-कुसुम्भा भादि से रंगे हुए वस्त्र, विरक्त-विविध विरक्तं--नानारागेन रक्तं वस्त्र मणि कुण्डलं हिरण्यं रंगों से रंगे हुए वस्त्र, मणि, कुण्डल, हिरण्य और स्त्रियों का परिग्रह स्त्रीश्च परिगृह्य तत्रैव रज्यन्ति ।
कर उनमें ही अनुरक्त हो जाते है। मनुष्यः वस्त्राणां शरीररक्षाय, मणिकुण्डलयोः मनुष्य शरीररक्षा के लिए वस्त्रों का, अलंकरण के लिए मणिभषाय, हिरण्यस्य जीवनयापनाय, स्त्रीणाञ्च परिवार- कुंडल आदि का, जीवनयापन के लिए हिरण्य-सिक्के, सोना आदि वद्धये परिग्रहं करोति । उपयोगिता यदा आसक्तौ का और परिवार की वृद्धि के लिए स्त्रियों का परिग्रहण करता है। परिणता भवति तदा ममत्वग्रन्थिः सुदृढो भवति । जब यह उपयोगिता आसक्ति में परिणत हो जाती है तब ममत्व की सूत्रकारेण एतत् सत्यमिहोपदर्शितम् ।
गांठ घुल जाती है । सूत्रकार ने यहां इसी सत्य को अभिव्यक्त किया है। ५९. ण एत्थ तवो वा, दमो वा, णियमो वा विस्सति ।
सं०--नात्र तपो वा, दमो वा, नियमो वा दृश्यते । परिग्रही पुरुष में न तप होता है, न बम और न नियम ।
भाष्यम् ५९–अत्र परिग्रहे परिग्रहानुरक्ते वा पुरुष परिग्रह-प्रधान वातावरण अथवा परिग्रह में अनुरक्त पुरुष में न तपो वा दमो वा नियमो वा दृश्यते। परिग्रहानु- न तप दृष्टिगोचर होता है, न दम और न नियम । परिग्रह के अनुबंध बन्धेन निरन्तरं मनःसंतापो जायते। संतप्ते मनसि से निरन्तर मानसिक संताप बना रहता है। मन के संतप्त होने पर
१. आप्टे, रक्तकं-A Red Garment.
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