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अतिथिबलः कृपणबलः श्रमणबलश्च-धनयशोधर्मार्थं अतिथि'-कृपण -श्रमणेभ्यः दानं ददाति ।
आचारांगभाष्यम् अतिथि बल)
(धन, यश और धर्म के लिए क्रमशः अतिथि, कृपण बल प्रमण बल कृपण और श्रमणों को दान देता है।
४२. इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंड-समायाणं । सं०-इत्येतैः विरूपरूपः कार्यैः दण्डसमादानम् । इन नानाविध कार्यों के लिए वह दंड-हिंसा का प्रयोग करता है।
भाष्यम् ४२–इत्येतैः पूर्वसूत्रोक्तैः नानाविधैः पूर्व सूत्र में बतलाए गए नाना प्रकार के प्रयोजनों से मनुष्य प्रयोजनैः दण्डसमादानं क्रियते मनुष्येण ।
दण्ड का समादान--हिंसा का प्रयोग करता है। दण्डो घातो मारणमित्येकार्थाः ।
दण्ड, घात, मारण-ये एकार्थक शब्द हैं। ४३. सपेहाए भया कज्जति ।
सं०-स्वप्रेक्षया भयात् क्रियते। कोई व्यक्ति अपने चितन से और कोई भय से हिंसा का प्रयोग करता है।
४४. पाव-मोक्खोत्ति मण्णमाणे ।
सं०-पापमोक्षः इति मन्यमानः । कोई यज्ञ, बलि आदि से पाप को मुक्ति मानता हुआ हिंसा का प्रयोग करता है।
४५. अदुवा आसंसाए।
सं०--अथवा आशंसया। अथवा कोई अप्राप्त को पाने की अभिलाषा से हिंसा का प्रयोग करता है।
भाष्यम् ४३-४५-बलाथ दण्डसमादानं क्रियते इति बल-प्राप्ति के लिए हिंसा का प्रयोग किया जाता है, यह प्रयोजनमादिष्टम्। बलप्राप्तेः हेतुचतुष्टयमिदानी प्रयोजन बताया जा चुका है। अब बल-प्राप्ति के चार हेतु और बताए आदिश्यते
जा रहे हैं१. स्वप्रेक्षा-स्वपर्यालोचना।
१. स्वप्रेक्षा-स्व-पर्यालोचन । २. भयम् ।
२. भय । ३. पापमोक्षः ।
३. पापमुक्ति। ४. आशंसा---अभिलाषा ।
४. आशंसा अर्थात् अभिलाषा ।
४६. तं परिणाय मेहावी व सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभेज्जा, णेवणं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभावेज्जा, णेवण्णं
एहि कज्जेहिं दंडं समारंभंतं समणुजाणेज्जा। सं०-तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं एतैः कार्यैः दण्डं समारभेत, नैवान्यं एत: कार्य: दण्डं समारम्भयेत्, नैवान्यं एतः कार्य: दण्डं समारभमाणं समनुजानीत । यह जानकर मेधावी पुरुष इन प्रयोजनों से स्वयं हिंसा का प्रयोग न करे, दूसरे से उसका प्रयोग न करवाए और उसका प्रयोग करने वाले दूसरे का अनुमोदन न करे।
१. आचारांग वृत्ति, पत्र १०४ :
तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना । अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः॥
२. आचारांग चूणि, पृष्ठ ६१ : किविणा विगलसरीरा। ३. वही, पृष्ठ ६१ : समणा चरगाति ।
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